Showing posts with label Hindi. Show all posts
Showing posts with label Hindi. Show all posts

Saturday 16 March 2019

मोदी के ‘नए भारत’ में कैसे सुनिश्चित होगा सामाजिक न्याय

योजना मासिक मे प्रकाशित मेरा लेख

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त क्रांति के 75 साल पूरे होने के अवसर पर देशवासियों के बीच एक नए भारत (न्यू इंडिया) के निर्माण की बात कही. उन्होने कहा कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से अगले पांच साल तक लगातार अंग्रेजों के खिलाफ कुछ ना कुछ होता रहा जिसमें हर देशवासी किसी ना किसी स्तर पर जुड़ा था. आम लोगों ने मान लिया था कि अब स्वतंत्रता का लक्ष्य दूर नहीं और 1947 में वो लक्ष्य पूरा भी कर लिया गया. प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि अगर इसी तरह अगले पांच साल भी हर देशवासी कुछ मुद्दों को लेकर अपना योगदान करे तो एक नए भारत निर्माण का निर्माण हो सकता है. इसके लिए सभी अपनी रुचि के विषय चुन सकते हैं प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सुझाए गए कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर काम करके एक नए भारत के निर्माण में अपना योगदान दिया जा सकता है - भ्रष्टाचार मुक्त भारत, स्वच्छ भारत, गरीबी मुक्त भारत, आतंकवाद मुक्त भारत, सांप्रदायिकता मुक्त भारत और जातिवाद मुक्त भारत. अगले पांच साल इन विषयों पर काम करके निश्चय ही एक नए भारत का निर्माण हो सकता है जो समृद्ध, समर्थ, समरस होगा और राष्ट्र परमवैभव की ओर अग्रसर हो सकेगा.
इस लेख में प्रधानमंत्री मोदी के सपने के नए भारत के एक महत्वपूर्ण पहलू पर चर्चा की गई है जो जातिवादमुक्त भारत के मुद्दे से जुड़ा है. इसमें इस विषय पर विचार किया गया है कि नए भारत में जातीय वैमनस्यता कैसे कम होगी, सामाजिक न्याय कैसे सुनिश्चित होगा, समतामूलक और समरस भारत का निर्माण कैसे होगा.

Monday 11 March 2019

सामाजिक न्याय, सुशासन और मोदी सरकार

सामाजिक न्याय पर योजना मे प्रकाशित मेरा लेख
[इस लेख के दो हिस्से हैं. पहले हिस्से में ये बताने की कोशिश की गई है कि मोदी सरकार सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए कैसे वितरणीय न्याय (Distributive Justice) और प्रक्रियात्मक न्याय (Procedural Justice) को बराबर महत्व दे रही है. दूसरे हिस्से में केंद्र सरकार द्वारा सामाजिक के वंचित औऱ कमजोर वर्गों के लिए उठाएं गए प्रमुख कदमों की चर्चा की गई है.]

मूल्यों और संसाधनों का आधिकारिक तौर पर निर्धारण ही राजनीति है. लंबे समय तक सही तरीके से ऐसा करते रहने से समाज में न्याय स्थापित होता है और राजनीति सामाजिक बदलाव का बड़ा माध्यम बनती है. जहां तक न्याय की बात है तो उसकी एक परिभाषा होती है- जो बराबर हैं उन्हें बराबरी का हक देना और जो असमान हैं उन्हें अधिक महत्व देना. अगर राजनीति और न्याय की दोनो परिभाषाओं को एक साथ देखें तो सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में कठिनाई नहीं होगी.
मूल्यों और संसाधनों का न्यायसंगत तरीके से, आधिकारिक रूप से निर्धारण ही राजनीति का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए जिससे सामजिक न्याय सुनिश्चित होगा और राजनीति एक बड़े सामाजिक बदलाव की साक्षी बनेगी. न्याय सुनिश्चित करते समय दो स्तर पर ध्यान देना चाहिए. एक तो वितरण के स्तर पर और दूसरा क्रियान्वयन के स्तर पर. इसीलिए न्याय के दो प्रकार पर हम यहां चर्चा करेंगे- वितरणीय न्याय और प्रक्रियात्मक न्याय.

Monday 4 March 2019

डॉ. भीम राव आंबेडकर - देश और समाज की एकता के महान रक्षक

डॉ. आंबेडकर पर रोजगार समाचार मे प्रकाशित मेरा लेख

भारत एक सनातन सभ्यता है. यहां संघर्ष, समन्वय और समरसता साथ-साथ चलती रहती है. लेकिन समस्या तब होती है जब कुछ लोग अपने हित साधने के लिए समाज में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करने लगते हैं जिससे कभी-कभी देश की एकता और अखंडता को भी खतरा उत्पन्न होने लगता है. भारत में जाति से जुड़ी समस्याएं भी कुछ ऐसा ही रूप धर कर सामने आ रही हैं. ऐसे समय में संविधान निर्माता डॉ. भीम राव आंबेडकर और भी  प्रासंगिक होकर उभरते हैं.
गांधी से आंबेडकर की ओर
इस दशक में आंबेडकर हमारे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में कुछ इस तरह उभरे हैं कि वो महात्मा गांधी से भी महत्वपूर्ण नजर आते हैं. इसका एक कारण ये हो सकता है कि जहां गांधी ने अहिंसक तरीकों से सिर्फ राजनीतिक आजादी और समानता की बात कही वहीं आंबेडकर शुरू से सामाजिक-आर्थिक समानता की बात कर रहे थे. देश को 1947 में आजादी मिल गई और संविधान ने हम सब को एक व्यक्ति-एक मत के माध्यम से राजनीतिक समानता भी दे दी. पिछले सत्तर साल में राजनीतिक समानता का काम काफी हद तक पूरा भी हो चुका है लेकिन समाजिक और आर्थिक स्तर पर समानता और आजादी मिलना अभी बाकी है. भारतीय संविधान के प्रमुख लक्ष्यों में जिस सामाजिक और आर्थिक समानता, न्याय और स्वतंत्रता की बात कही गई है उस पर कुछ काम ही हो पाया है और बहुत तरीकों से काम किया जाना बाकी है. ऐसे ही दौर में डॉ. आंबेडकर एक प्रकाश स्तंभ बनकर उभरते हैं जो हम सबको रास्ता दिखाते हैं. डॉ. आंबेडकर स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी इस बात के समर्थक थे कि राजनीतिक आजादी के कोई मायने नहीं होंगे अगर सामाजिक-आर्थिक स्तर पर शोषण जारी रहा और हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं.
डॉ. आंबेडकर ने एक ऐसे भविष्य की कल्पना की थी जो पूरी तरीके से परिवर्तनकारी होगा. भारत को अगर सही अर्थों में एक प्रगतिशील, आधुनिक और विकसित समाज और राज्य बनने की तरफ तेजी से बढऩा है तो आंबेडकर के विचारों को मूर्त रूप देने के लिए अथक प्रयास करने होंगे.

21वीं सदी में युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद की प्रासंगिकता

स्वामी विवेकानंद पर रोजगार समाचार मे प्रकाशित मेरा लेख

स्वामी विवेकानंद एक ऐसे आदर्श युवा हुए हैं, जो भारत में जन्मे परंतु जिन्होंने विश्वभर के करोड़ों युवाओं को प्रेरित किया. 1893 में शिकागो धर्म संसद में दिए गए भाषण की बदौलत वे पश्चिमी जगत के लिए भारतीय दर्शन और अध्यात्मवाद के प्रकाशस्तंभ बन गए. उसके बाद से वे युवाओं के लिए एक सदाबहार प्रेरणा स्रोत रहे हैं. 21वीं सदी में जबकि भारत के युवाओं को नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, वे अपने दायरों से बाहर आ रहे हैं और बेहतर भविष्य की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में स्वामी विवेकानंद उनके लिए और भी प्रासंगिक हो गए हैं. जीवन अगर सार्थक नहीं है, तो उसे सफल नहीं कहा जा सकता. युवाओं की सबसे बड़ी खोज ऐसे सार्थक जीवन की है, जो हृदय को प्रेरित, मस्तिष्क को मुक्त और आत्मा को प्रज्ज्वलित करे. स्वामी विवेकानंद इसे अच्छी तरह समझते थे. उनके विचारों को इस चार सूत्री मंत्र के जरिए समझा जा सकता है, जिसमें सार्थक जीवन के लिए भौतिक, सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक खोज अनिवार्य है. भौतिक खोज से उनका अभिप्राय: है - मानव शरीर की देखभाल करना और ऐसी गतिविधियों को अंजाम देना, जो शारीरिक कष्टों को कम करने वाली हों. इसका लक्ष्य युवाओं को कोई कार्य करने के लिए शारीरिक दृष्टि से तैयार करना है. अगला स्तर सामाजिक खोज का है, जिसमें ऐसी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है, जो भौतिक कष्ट कम करने वाली हों. अस्पतालों, अनाथालयों और वृद्धावस्था आश्रमों का संचालन इसी स्तर के अंतर्गत आता है. अगला उच्चतर स्तर बौद्धिक खोज का है. इसके अंतर्गत विद्यालय, महाविद्यालय संचालित करना और जागरूकता एवं सशक्तिकरण कार्यक्रमों का संचालन शामिल है. किसी व्यक्ति द्वारा अपना बौद्धिक स्तर उन्नत बनाना, ज्ञान प्राप्त करना और उसका समाज में प्रचार-प्रसार करना इस श्रेणी के अंतर्गत आता है. गहन चिंतन करने वालों के लिए वे सर्वोच्च स्तर की आध्यात्मिक सेवा का सुझाव देते थे, जिसमें ध्यान और साधना शामिल है. परंतु ये स्तर कोई जल विभाजक नहीं है, कोई व्यक्ति एक स्तर पर काम करते हुए अन्य स्तर पर भी काम कर सकता है, जो उसकी खोज, क्षमता और पहुंच पर निर्भर है. उनकी खोज में बदलाव होने पर वे अन्य स्तरों पर भी जा सकते हैं.

Monday 28 January 2019

‘भारत रत्न’ नानाजी देशमुख: ग्रामोदय से अंत्योदय के विचार के प्रणेता

नानाजी देशमुख पर दैनिक जागरण मे प्रकाशित मेरा लेख


ग्रामोदय के माध्यम से अंत्योदय के सपने को साकार करने की पहल करने वाले नानाजी देशमुख को भारत सरकार ने भारत रत्नसे सम्मानित करने का फैसला किया है. एक कुशल संगठक, विचारक, क्रांतिकारी, राजनेता होने के साथ-साथ नानाजी देशमुख एक ऐसे समाजशिल्पी भी थे जिन्होंने युगानुकूल समाज रचना के माध्यम से गांधी के ग्राम स्वराज, दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय और जयप्रकाश नारायण के सर्वोदय के विचार दर्शन को ग्रामोदय के माध्यम से मूर्त रूप देने की सफल और सार्थक कोशिश की.
महाराष्ट्र में जन्मे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से देश को अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करने वाले चंडिकादास अमृतराव नानाजीदेशमुख ने उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाया जहां उन्हें संघ का प्रचारक बनाकर भेजा गया. गोरखपुर को केंद्र बनाकर नानाजी देशमुख ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में संघ के काम को विस्तार दिया. उन्होंने 1950 में गोरखपुर में पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना करवाई जिसकी आज 18000 से अधिक शाखाएं पूरे देश में विद्या भारती के माध्यम से काम करती हैं. उत्तर प्रदेश आने पर ही नानाजी की मुलाकात दीनदयाल उपाध्याय से हो गई थी. हालांकि दोनों उम्र में बराबर थे लेकिन नानाजी उन्हें अपना वरिष्ठ ही मानते थे. संघ की योजना से जब लखनऊ में स्वदेशऔर राष्ट्र धर्मपत्रिका का प्रकाशन शुरू किया गया तो नानाजी को उसका प्रबंध निदेशक और अटल बिहारी वाजपेयी को संपादक नियुक्त किया गया. मार्गदर्शक की भूमिका में दीनदयाल उपाध्याय खुद थे.
1951 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से दीनदयाल उपाध्याय के नेतृत्व में संघ के प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों की टोली भारतीय जनसंघ में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मदद करने के लिए भेजी गई तो उनमें नानाजी देशमुख प्रमुख थे. नानाजी को उत्तर प्रदेश का काम दिया गया जिसे उन्होंने अगले 25 साल बखूबी निभाया. जनसंघ स्थापना के अगले 5-6 साल में ही उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री के रूप में उन्होंने प्रदेश, जिले और तहसील स्तर पर संगठन का काम मजबूत किया. उत्तर प्रदेश में जनसंघ की ताकत बढ़ाने में दीनदयाल के मार्गदर्शन, अटल बिहारी की भाषणकला के साथ-साथ नानाजी के सांगठनिक कौशल का बड़ा योगदान था. उनके दूसरी पार्टी के नेताओं जैसे राम मनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह से भी बहुत अच्छे संबंध थे. एक बार तो नानाजी जनसंघ के वर्ग में राममनोहर लोहिया को लेकर गए जिससे उन्हें जनसंघ को समझने में मदद मिली थी. उत्तर प्रदेश में 1967 की चरण सिंह के नेतृत्व वाली संविद सरकार बनाने में नानाजी की बड़ी भूमिका थी. दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत होने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ में संगठन की कमान दी गई तो उनकी टीम में महासचिव के रूप में कैलाशपति मिश्र, यादवराव जोशी, लालकृष्ण आडवाणी के साथ-साथ नानाजी भी शामिल हुए.

Monday 17 December 2018

श्रमिक नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर

भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर प्रवक्ताडॉटकॉम पर प्रकाशित मेरा लेख

मुख्य रूप से हम बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को भारत के संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं लेकिन उससे पहले वो वॉयसरॉय की परिषद के श्रम सदस्य के रूप में काम कर चुके थे जिसे हम श्रम मंत्री भी कह सकते हैं. डॉ. अम्बेडकर ने श्रम मंत्री के रूप में 1942-1946 तक अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. इस सीमित कालखंड में बाबा साहेब ने दलित एवं श्रमिक वर्ग के बंधुओं के हित में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. उन्होंने खुद भी मजदूर संगठनों के बीच काम किया और उनकी समस्याओं को करीब से समझा.

शुरुआती वर्ष

श्रमिक वर्ग के अधिकारों तथा उनकी समस्याओं के प्रति डॉ. अम्बेडकर ना केवल जागरूक रहे बल्कि वे इन विषयों पर सतत संघर्षशील भी रहे. यह बात अलग है कि समय-समय पर परिस्थितियों के अनुरूप उनके विचारों में परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता है.
1920 के दशक में भारत में साम्यवादी संगठनों का प्रभाव बढ़ा और 1924, 1925, 1928, 1929 के वर्षों में कपड़ा उद्योग से जुड़े मजदूर संगठनों ने जब हड़तालें कीं तब डॉ. अम्बेडकर ने अपने पत्रों बहिष्कृत भारत और जनता के माध्यम से श्रमिक वर्गों को इन हड़तालों से दूरी बनाकर रखने को कहा. जिसके परिणामस्वरूप साम्यवादियों ने बाबा साहेब को श्रमिक वर्ग का शत्रुघोषित कर आलोचना की. डॉ. अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि श्रमिक वर्ग की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है. ऐसी स्थिति में उन्हें हड़ताल पर नहीं जाना चाहिए.
श्रमिकों की समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने लगातार आन्दोलन किया इसी कारण सन 1934 में वे बम्बई म्युनिसिपल कर्मचारी संघ के अध्यक्ष चुने गए थे. 15 सितम्बर 1938 को जब बम्बई विधानसभा में मजदूरों द्वारा हड़ताल करने से रोकने के लिए इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट बिल लाया गया तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया. उन्होंने उस समय के मजदूर संगठनों के साथ मिलकर इस बिल के विरोध में आन्दोलन चलाया और अपने भाषण में मजदूर संगठनों से हड़ताल पर जाने की अपील की. उसके बाद उन्हें सफलता भी मिली और यह श्रमिक विरोधी बिल रद्द हो गया.
रेलवे मजदूरों के एक सम्मेलन में 1938 में अध्यक्षीय भाषण करते हुए डॉ अंबेडकर ने कहा कि यह बात सच है कि अभी तक हम अपनी सामाजिक समस्याओं को लेकर ही संघर्ष कर रहे थे, किन्तु अब समय आ गया है जब हम अपनी आर्थिक समस्याओं को लेकर संघर्ष करें. उन्होंने अछूत मजदूरों की समस्याएं भी जोर-शोर से उठाईं.
बाबा साहेब की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिंता उन शब्दों में परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर 1943 को लेबर परिषद के उद्घाटन के समय औद्योगिकीकरण विषय पर बोलते हुए कही थी. उन्होंने कहा था कि पूंजीवादी संसदीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में दो बातें जरूर होती हैं. पहली, जो लोग काम करते हैं उन्हें गरीबी में रहना
पड़ता है और दूसरी जो काम नहीं करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है. एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता. जब तक मजदूरों को रोटी, कपड़ा और मकान और निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रूप से जब तक सम्मान के साथ अपना जीवन-यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती. हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वासन मिलना जरूरी है.
बाबा साहेब का जोर इस बात पर हमेशा रहा कि श्रम का महत्व बढ़े, उसका मूल्य बढ़े. उन्होंने दिसम्बर, 1945 में श्रम आयुक्तों की एक विभागीय बैठक बम्बई सचिवालय में आयोजित की थी. इस बैठक में दिया गया उनका उद्घाटन भाषण अदभुत है. उन्होंने कहा कि औद्योगिक झगड़ों को निपटाने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है- समुचित संगठन, कानून में आवश्यक सुधार, श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण.

Wednesday 5 December 2018

सामाजिक विज्ञान की भारतीय दृष्टि

डॉ श्रीप्रकाश सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक पॉलिटिक्स फॉर अ न्यू इंडिया: अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिव ` की पाञ्चजन्य में प्रकाशित मेरी समीक्षा

मुगलों और तुर्कों ने भारतीय मंदिर और शिक्षा के केंद्र नष्ट किए लेकिन अंग्रेजों ने इन केंद्रों के प्रति अनास्था उत्पन्न की. इसीलिए उन्होंने ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त थी. जिसमें पश्चिम से उपजा ज्ञान ही अंतिम सत्य नजर आता था. इस उपनिवेशवादी मानसिकता ने हमें उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी कुछ नया और मौलिक के संधान से दूर किया. आज आजादी के सत्तर साल बाद भी ऐसा लगता है कि हम हजारों सालों से अभिसिंचित भारतीय चिंतन परंपरा और सभ्यतागत विमर्श से कितने दूर हैं. हालांकि कुछ कोशिशें समय समय पर जरूर होती रही हैं.
विज्ञान से लेकर सामाजिक विज्ञान तक ऐसे कई हैं जिन्होंने अपने स्तर पर काफी काम किया. वैसे तो हर क्षेत्र महत्वपूर्ण है लेकिन एक बड़ा काम जहां करने की जरूरत है वो क्षेत्र है सामाजिक विज्ञान का. ऐसे कुछ लोग हुए भी हैं जिन्होंने विश्वविद्यालय व्यवस्था के अंदर और बाहर रहकर इतिहास, समाजशास्त्र और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि से काम किया. वासुदेव शरण अग्रवाल, कुबेरनाथ राय, गोविंद चंद पांडे, राम स्वरूप और सीताराम गोयल कुछ ऐसे ही नाम हैं जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में अच्छा काम किया है.
पिछले कुछ सौ सालों में पश्चिम में पुनर्जागरण के बाद हुए औद्योगिकीकरण और विज्ञान, तर्क, संस्कृति, कला के विकास के बीच से जो विमर्श निकला उसमें सवाल, संधान और समाधान के लिए एक ऐसा वातावरण बनाया कि दुनिया के उस हिस्से में मानव सभ्यता, विकास और वैभव की नई ऊंचाइयां छूने लगी. मानव जीवन में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को उन्होंने समझा और उसके पीछे तर्क का पूरा ताना-बाना गढ़ा गया. जैफरसन, लॉक, रूसो, मिल, बेंथम, बर्क, लास्की जैसे दर्जनों चिंतकों, विचारकों ने पोथियां लिख डालीं मानवाधिकारों, मानव जीवन के महत्व और अवसर की समानता पर. ये सब ज्ञान किताबों में नहीं रहा बल्कि पिछले 250 सालों में धरातल पर भी उतरा.
लेकिन इनका सारा ज्ञान -पोथी से लेकर धरातल तक - सिर्फ अपनी दुनिया के लिए ही था. बाकी दुनिया को तो ये सभ्य बनाने में लगे थे. रुडयार्ड किपलिंग की भाषा में वाइट मेन्स बर्डन’. इसलिए यहां का ज्ञान की महानता को क्यों स्वीकार करते. अब सोचने की बात यह है कि क्या भारत के पास ऐसी समझ नहीं थी. पड़ताल करने पर पता लगता है कि इन विषयों पर पश्चिम से बहुत पहले चिंतन भारत में हो चुका था. डॉ अंबेडकर ने खुद कहा था कि मैंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व फ्रांस की क्रांति से नहीं बल्कि महात्मा बुद्ध के दर्शन को पढ़कर जाना है. यानी कि एक चिंतन धारा थी जो बाहरी तत्वों द्वारा अवरुद्ध की गई. आक्रांताओं के आक्रमण, शोषण और आतंक में भारत जो विश्वगुरू था वो गुलाम हो गया. और, गुलाम लोग कभी संधानकर्ता नहीं होते, गुरू नहीं बनते.
इसलिए हमें प्रयास करने चाहिए कि भारतीय ज्ञान परंपरा फिर से विकसित हो. ऋषि और कृषि संस्कृति से निकला हमारा सभ्यतागत विमर्श फिर अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करे. इसे चाहे - भारतीय पक्ष, इंडिक वे, इंडो-सेंट्रिक एजूकेशन, भारतीयकरण, सैफर्नाइजेशन, भगवाकरण, इंडियनाइजेशन जो कहें लेकिन आज इसकी आवश्कता सबसे अधिक है. ये ज्ञानधारा किसी के समानांतर और विरोध में नहीं बल्कि विश्व ज्ञान कोष के सागर में भारत का अपना योगदान है जो मौजूदा समय के सवालों के भारतीय जवाब देने की कोशिश करेगा.
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रफेसर श्रीप्रकाश सिंह की नई किताब पॉलिटिक्स फॉर न्यू इंडिया : अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिवउसी दिशा में एक आगे लिया हुए कदम है. उनके द्वारा संपादित इस पुस्तक में भारतीय समाज और राजनीति के मौजूदा दौर के मुद्दों को भारतीय दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है. विश्वविद्यालय व्यवस्था में रहते हुए ऐसे विषयों पर काम करना कुछ वर्षों पहले तक थोड़ा कठिन था और सामाजिक विज्ञान में भारतीय ज्ञान परंपरा भी उतनी मजबूती से खड़ी दिखाई नहीं दी थी.

Tuesday 27 November 2018

प्रभावी बनती आयुष्मान भारत योजना

आयुष्मान भारत पर दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा लेख

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 23 सितंबर, 2018 को रांची से शुरू की गई आयुष्मान भारत राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना को अब दो महीने से अधिक हो चुके हैं. इस योजना को क्रियांवित कर रही राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी (एनएचए) के मुताबिक अबतक साढ़े तीन लाख से अधिक लोगों को इस योजना का लाभ मिल चुका है जिस पर 450 करोड़ रुपए का व्यय आया है. आयुष्मान भारत के नाम से प्रसिद्ध हो रही इस योजना में देश के सबसे गरीब और कमजोर तबके के 10 करोड़ से अधिक परिवारों यानी करीब पचास करोड़ लोगों को पांच लाख रुपए तक की द्वितीयक और तृतीयक स्तर की स्वास्थ्य सुविधाएं दी जाएंगी. इन स्वास्थ्य सुविधाओं के तहत कैशलेस आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है. लेकिन देखने की बात ये है कि क्या सचमुच ये दावे सही हो पाएंगे क्योंकि कई बार देखने में आता है कि स्थानीय स्तर पर लचर प्रशासनिक तंत्र, खर्च का बोझ, विभिन्न स्तर पर लीकेज और भ्रष्टाचार ऐसी योजनाओं को कमजोर कर देते हैं और लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंच पाता.  
आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत सभी सरकारी अस्पतालों और आवंटित किए गए निजी अस्पतालों में ऐसे करीब 1350 मेडिकल पैकेज दिए जा रहे हैं जिसके तहत फ्री में इलाजा कराया जा सकता है. इसमें सामान्य इलाज, दवा, सर्जरी, डे केयर और जांच आदि का खर्च शामिल हैं. कोई भी अस्पताल इलाज करने से मना नहीं कर सकता और इसमें पहले से चली आ रही बीमारियां भी शामिल हैं. योजना में महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता दी जाएगी. इसमें सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के तहत दिए गए शाश्वत स्वास्थ्य सुरक्षा के लक्ष्य को भी पूरा करने की कोशिश है.
ऐसा देखने में आता है कि स्वास्थ्य समस्याओं की वजह से आमदनी से ज्यादा खर्च होने लग जाता है जो एक बड़ी दिक्कत बन जाती है. 2011-12 में साढ़े पांच करोड़ भारतीय इसलिए गरीबी रेखा से नीचे आ गए क्योंकि परिवार में किसी सदस्य को बड़ी स्वास्थ्य समस्या हो गई थी. कई अध्ययनों में पता लगा है कि बीमारी बढ़ने से दवा, जांच और रखरखाव के खर्च में बढ़ोत्तरी हो जाती है जो विकासशील देशों के लोगों को गरीबी की तरफ खींचती है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक करीब 63 फीसदी लोगों को अपने इलाज का खर्च खुद देना पड़ता है क्योंकि वो किसी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना का हिस्सा नहीं होते. इसलिए भारत सरकार द्वारा लाई गई आयुष्मान योजना एक बेहतर कदम है जो ना सिर्फ गरीब आदमी को और गरीब बनाने से रोकेगा बल्कि एक स्वस्थ समाज, बेहतर मानव श्रम और रोजगार के नए अवसर भी पैदा करेगा.
संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है इसलिए केंद्र की तुलना में स्वास्थ्य सुविधा देने की राज्य की जिम्मेदारी अधिक है. लेकिन इस योजना में केंद्र सरकार ने ही स्वास्थ्य सुरक्षा देने का जिम्मा लिया है. इससे राज्य का आर्थिक बोझ कम होगा. इसलिए राज्यों को स्वास्थ्य सुविधा पर होने वाले खर्च को अधिक से अधिक अस्पताल और जांच की बुनियादी सुविधा आदि देने पर लगाना चाहिए. बिना राज्य सरकारों और जिला प्रशासन के सहयोग के इस योजना को सफल नही बनाया जा सकता.
अगर सामाजिक पिरामिड के सबसे निचले तबके के लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचानी हैं तो सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा देने भर से बहुत कुछ नहीं होगा. राज्य सरकारों को भी कमर कसनी होगी. स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे को मजबूत करना होगा. पिछले दो महीने के आंकड़ों से पता लगता है कि आयुष्मान भारत के तहत 68 फीसदी लोगों ने निजी क्षेत्र के अस्पतालों में जाकर इलाज कराना ज्यादा ठीक समझा. राज्य सरकारों के साथ सांसदों, विधायकों और अन्य जागरुक लोगों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी कि स्थानीय स्तर तक स्वास्थ्य सुविधाएं ठीक तरीके से पहुंचे. एक ऐसी ही पहल हमीरपुर सांसद अनुराग ठाकुर ने सांसद मोबाइल स्वास्थ्य सेवा नाम से की है जिसके तहत जांच यंत्रों से लैस वैन खुद लोगों तक पंहुचती है और जांच करती है. इस वैन के माध्यम से 40 तरह की जांचें की जा सकती हैं. अब तक ये वैन 25 हजार से ज्यादा लोगों को लाभ पहुंचा चुकी है.

कितनी खतरनाक हो सकती है BSP के बाद की दलित राजनीति

दलित राजनीति पर लल्नटॉप में प्रकाशित मेरा लेख.


उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम इतने अप्रत्याशित होंगे, किसी ने सोचा नहीं था. हालांकि, ज्यादातर लोगों को ये समझ आ रहा था कि इस चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) बहुमत की सरकार बनाने नहीं जा रही है. साथ ही, अब ये भी साफ होता नजर आ रहा है कि बसपा एक हाशिए पर जाती हुई पार्टी है. इसके कई कारण हैं. हम इन कारणों की चर्चा तो करेंगे ही, साथ ही ये जानने की कोशिश भी करेंगे कि अगर बसपा हाशिए पर गई, तो किस तरह की दलित राजनीति उभर कर आएगी और उसका भारतीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा.
20वीं सदी के दूसरे दशक में डॉ. अंबेडकर ने कांग्रेस के अभिजनवादी नेतृत्व के खिलाफ हाशिए के लोगों को संगठित किया और उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा. ये दलित चेतना और सैकड़ों सालों की बंदिश से मुक्ति के लिए एक अच्छी शुरुआत थी. डॉ. अंबेडकर ने पार्टी निर्माण की बात कही, लेकिन उसे संगठित स्वरूप देने से पहले चले गए.
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन हुआ, लेकिन वो कुछ बेहतर नहीं कर पाई. महाराष्ट्र और यूपी की कुछ पॉकेट्स के अलावा वो कहीं परिणाम नहीं ला पाई. दलित वोट कांग्रेस को ही पड़ते रहे. लेकिन, यहां दलित पैट्रन (मालिक) नहीं थे, बल्कि क्लाइंट मात्र थे, जहां वो खुद के लिए कुछ नहीं कर सकते थे, बल्कि कांग्रेसी नेतृत्व के मोहताज़ भर थे. इस 50 साल के कांग्रेसी पैट्रन-क्लाइंट संबंध में मात्र एक नेता दिखाई दिए, जो ऊपर तक आए. वो थे बाबू जगजीवन राम.
1960 के दशक के प्रथम लोकतांत्रिक उभार का लाभ पिछड़ी जातियों को मिला और कई नेता उभरकर सामने आए. ये नेता राज्यों के मुख्यमंत्री बने, राष्ट्रीय फलक पर चमके और सबसे बड़ी बात, उत्तर भारत की विधानसभाओं में इनकी संख्या एकदम से बढ़ गई. हरित क्रांति, कांग्रेस से निराशा और गांधी-नेहरू की विरासत का कमजोर होना इसके बड़े कारण थे. ये अलग राजनीतिक संस्कृति से निकले लोग थे, जिन्होंने कभी कांग्रेसी राजनीति नहीं की थी. इसीलिए इन्हें इंदिरा गांधी का जबरदस्त विरोध करने में कोई दिक्कत नहीं हुई. ये महज कोई संयोग नहीं था कि गुजरात के छात्र आंदोलन ने बिहार में आकर अपना स्वरूप प्राप्त किया.
इन सबके बीच दलित राजनीति का कोई नामलेवा नहीं था, जबकि उनके बीच सामाजिक सुधार आंदोलन की एक पूरी परंपरा काम कर रही थी, जो जातीय या राष्ट्रीय चेतना के लिए बहुत जरूरी होती है. ठक्कर बापा, महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ अंबेडकर ने जिस तरह दलित और वंचित समाज की वकालत की, वैसी पिछले 200 साल में किसी भी राष्ट्रीय नेता ने किसी भी समाज के लिए नहीं की.
रिपब्लिकन प्रयोग फेल हो चुका था, लेकिन जातीय चेतना, शिक्षा के प्रसार और आरक्षण के लाभ के कारण दलित समाज में एक बड़ा वर्ग खड़ा हुआ, जो अपनी पहचान तलाश कर रहा था. जिसे आजादी के बाद से ही कसमसाहट थी, जो अब बड़ा रूप ले रही थी. इतने लंबे समय तक दबी रही ये दलित जातीय चेतना 1970 और 1980 के दशक में दो रूपों में बाहर आती दिखी.
एक था दलित पैंथर और दूसरा कांशीराम के नेतृत्व वाला बहुजन प्रयोग. दोनों के ही तेवर आक्रामक थे, जो लाजिमी भी था. इतने लंबे समय से दबी चेतना दरअसल ऐसे ही बाहर आती है. अमेरिका के ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित दलित पैंथर कर्नाटक और महाराष्ट्र में सक्रिय हुआ, जिसकी आक्रामकता हिंसक भी हो जाती थी और कई बार लोकतांत्रिक मूल्यों की सीमाएं लांघ जाती थी. नामदेव धसाल और अर्जुन डांगले जैसे कई नेता और लेखक इसी आंदोलन की उपज थे, जिनके शब्द अगड़ी जातियों को नश्तर की तरह चुभते थे, लेकिन दलित जातियों के लिए मरहम का काम करते थे.
दूसरी तरफ कांशीराम ने दलित कर्मचारियों को संगठित करने का बड़ा काम किया और 1978 में बामसेफ का गठन किया, जो दलितों, बहुजनों और वंचित समाज के मुद्दों को उठाने वाला ट्रेड यूनियन था. 1982 में कांशीराम ने डीएस4 (दलित, शोषित संघर्ष समाज समिति) और 1984 में बसपा का गठन किया. बसपा ने 1980 के दशक से चुनाव लड़ना शुरू किया और 1993 में सबसे बड़े प्रदेश में सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बनी.
1995 में बसपा महासचिव मायावती, जो खुद दलित समाज से आती हैं, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. बसपा ने यूपी के साथ-साथ बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान की कुछ सीटों पर भी जीत हासिल की. पिछले बीस सालों में लोकसभा चुनावों में सभी सीटों पर चुनाव लड़कर करीब 5% मत हासिल किया. कांशीराम के लिए चुनाव लड़ना राजनीतिक-सांस्कृतिकरण का एक बड़ा माध्यम था, जिससे दलित जनता पब्लिक स्फियर का हिस्सा बनती थी.

Monday 26 November 2018

पाकिस्तान का सच सामने लाने की रणनीति बनाए भारत

पाकिस्तान और कुलभूषण जाधव पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

कुलभूषण जाधव के मामले में पाकिस्तान ने एक और विडियो जारी किया है, जिसमें जाधव पाकिस्तान के प्रशासन का धन्यवाद कर रहे हैं और भारतीय राजनयिक की आलोचना कर रहे हैं। ऐसा कैसे संभव है कि कुलभूषण जाधव जैसे व्यापारी जिसे पाकिस्तान ने मौत की सजा सुना दी हो वह उनकी आवभगत की तारीफ करे। ऐसा ही विडियो पाकिस्तान पहले भी जारी कर चुका है, जिसमें कुलभूषण अपने को भारतीय नौसेना का कमांडर बता रहे हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय ने विडियो जारी किये जाने की इस घटना को सामान्य बात बताया है। उनके अनुसार पाकिस्तान से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती। उसने दबाव बनाकर कुलभूषण से ऐसा करवाया होगा।
भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान लंबे समय से अपने यहां आतंकियों को पनाह और ट्रेनिंग देता आ रहा है। आतंकवाद का जो बीज पाकिस्तान ने सालों पहले बोया अब वह उसी पर भारी पड़ रहा है। आतंकवाद की इस दोधारी तलवार ने पाकिस्तान को बुरी तरह से खोखला करना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान अब अपने देश में फैल रहे आतंकवाद के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहा है। यह अपने आप में एक बेबुनियाद बात है। कुलभूषण जाधव का मामला भी इसी कोशिश का एक हिस्सा है, जिसमें पाकिस्तान अपनी गलतियों को छुपाने के लिए भारत पर पाकिस्तान को अस्थिर करने का आरोप लगा रहा है।
ऐसा लंबे समय से कहा जाता है कि पाकिस्तान को वहां की लोकतांत्रिक सरकार नहीं बल्कि अल्लाह, आर्मी और अमेरिका चलाते हैं। अपने आपको लगातार प्रांसगिक बनाए रखने के लिए आर्मी और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने एक स्थायी दुश्मन खोज रखा है जिसका नाम है: भारत। आर्मी और आईएसआई देश की कट्टरपंथी ताकतों को इस्लाम के नाम पर अपने साथ लाते हैं और उनके द्वारा आतंकी संगठन बनाकर भारत को अस्थिर करने की साजिश रचते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इन इस्लामिक संगठनों को अरब देशों से भी एक खास तरह का इस्लाम फैलाने के नाम पर पैसा मिला और ये काफी ताककवर हो गए। अब हालत यह हो गई है कि इन्होंने भी पाकिस्तान पर राज करने के मंसूबे पाल लिए हैं। इन्होंने अब अपने राजनीतिक संगठन भी बना लिए हैं और आने वाले समय में चुनाव में हिस्सा लेने का ऐलान कर दिया है। कुछ दिन पहले ही जमात-उत-दावा आतंकी संगठन के मुखिया हाफिज सईद ने भी अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने की घोषणा की है। ये आतंकी संगठन अपने आप में इतने ताकतवर हो गए हैं कि जब-तब अपनी ताकत का एहसास पाकिस्तान की सेना, आईएसआई और सरकार को कराते रहते हैं। कट्टरपंथी इस्लाम की जड़ें पाकिस्तान में काफी नीचे तक पहुंच गईं हैं, जिसकी वजह से इन संगठनों को काफी जन-समर्थन भी मिल जाता है। अब इन सभी समस्याओं के लिए पाकिस्तान कुलभूषण जाधव जैसे सामान्य लोगों को गिरफ्तार करके भारत को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास करता है।
यह सिर्फ कुलभूषण जाधव मामले की बात नहीं है, इससे पहले सरबजीत सिंह के मामले में हमने देखा कि कैसे उन्हें पाकिस्तान ने पहले प्रताड़ित किया और फिर मार दिया। इसी तरह के मामलों में कई भारतीयों को अफगानिस्तान, ईरान और भारत की सीमा से अगवा किया गया है और उन्हें भारतीय खुफिया एजेंसी का एजेंट करार दे दिया गया और उन पर आतंकी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाकर मौत की सजा सुना दी गई है। इनमें से किसी भी मामले की चार्जशीट पेश नहीं हुई और सारी कार्यवाही सैन्य अदालत में होती है जबकि इन लोगों के भारतीय सेना में होने के कोई प्रमाण पाकिस्तान के पास नहीं होते। हालांकि यह अतंरराष्ट्रीय समझौते का उल्लंघन है, जिसके तहत किसी आम नागरिक पर सैन्य अदालत में केस नहीं चला सकते। यहां पर बताते चलें कि कुलभूषण जाधव भी अब भारतीय नौसेना में काम नहीं करते और अपने व्यापार के सिलसिले में ईरान गये थे, जहां ईरान सीमा पर उनको पकड़ा गया लेकिन उनपर भी पाकिस्तान की सैन्य अदालत में मामला चला और उन्हें मौत की सजा सुना दी गई। भारतीय नागरिक पर इस तरह मुकदमा चलने पर पाकिस्तान में भारत के उच्चायोग ने 13 बार चार्जशीट मांगी लेकिन अभी तक उन्हें चार्जशीट की कॉपी उपलब्ध नहीं कराई गई है।

कोविंद अगर गुमनाम हैं, तो जिम्मेदार कौन है?

राष्ट्रपति चुनाव पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

राष्ट्रपति चुनाव की तस्वीर साफ हो चुकी है। एक तरफ बीजेपी और एनडीए ने बिहार के राज्यपाल और पूर्व राज्यसभा सांसद रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार घोषित किया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने 17 राजनीतिक दलों का साथ लेते हुए पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को आगे किया है। जब मीरा कुमार प्रत्याशी घोषित हुईं तो किसी को पूछना नहीं पड़ा कि दरअसल मीरा कुमार कौन हैं, क्योंकि इनके पिता इस देश के उपप्रधानमंत्री रह चुके हैं। वह खुद आईएफएस अधिकारी रही हैं, लोकसभा सांसद रही हैं, केंद्र में मंत्री रहीं और पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान लोकसभा में स्पीकर थीं। जीवन में बहुत कुछ उन्हें विरासत में ही मिला। उन तमाम चीजों के लिए उन्हें कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा, जिसके लिए उस समुदाय को जान की बाजी तक लगा देनी पड़ती है, जिसका वह प्रतिनिधित्व करती हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मीरा कुमार कांग्रेस की सामंतवादी राजनीति का ही हिस्सा हैं और वह देश की पहली इलीट दलित राजनीतिज्ञ हैं। हमें सोचना होगा कि क्या ऐसे अभिजनवादी को देश का राष्ट्रपति होना चाहिए।
जब रामनाथ कोविंद प्रत्याशी घोषित हुए तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सवाल उठाए कि आखिर ये कौन हैं? ऐसा करने वाली वह अकेली नहीं थीं। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने कहा कि वह (कोविंद) राजनीतिक रूप से कमतर हैं, सामाजिक पहचान ज्यादा नहीं हैं। कई ने उनके बारे में सुना नहीं था। कई लोगों ने कहा कि बीजेपी ने कोविंद पर दांव लगाकर बस दलित कार्ड भर खेला है।
अब हम सब जान चुके हैं कि रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं। दो बार के राज्यसभा सांसद रह चुके कोविंद पहले उच्चतम न्यायालय में वकालत करते थे और पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के सहयोगी रह चुके हैं। वह पहले आईआईएम कोलकाता के बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। आजकल वो अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष भी हैं, जिसके अपने सरोकार होते हैं जो मीडिया-सोशल मीडिया के लोगों को ज्यादातर नहीं दिखते या वो देखना नहीं चाहते। यहां सवाल यह उठता है कि इतना सक्रिय राजनीतिक और सामाजिक जीवन होने के बावजूद वो हमें दिखाई क्यों नहीं दिए या ऐसे कहें कि हमारी मीडिया ने उन्हें क्यों नहीं दिखाया?
अब जब कोविंद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन गए हैं तो कई सामाजिक-राजनीतिक चिंतकों और पत्रकारों ने यह सवाल उठाया है। वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा कि कोविंद के बारे मे सवाल पूछना हमारी राजनीतिक पत्रकारिता की हालत बयां करता है जो बाबा लोग और सूत्रों पर पूरी तरह आधारित है। मैंने पहले नहीं बताया कि रामनाथ कोविंद 2010 में बीजेपी के प्रवक्ता भी रह चुके हैं, जहां वो बीजेपी के मीडिया रूम में अपनी टिप्पणी, साक्षात्कार और बाइट देने के लिए उपस्थित रहते थे। लेकिन एक प्रवक्ता के रूप में हमने उनके बारे में बहुत कम सुना और देखा। वह पार्टी की आवाज के रूम में मौजूद थे लेकिन उनकी आवाज बहुतों के लिए मायने नहीं रखती थी।
शायद उस दौर के बीजेपी कवर करने वाले बहुत से पत्रकार उनकी बाइट लेना उचित नहीं समझते थे। वरिष्ठ पत्रकार नितिन गोखले ने ट्विटर पर लिखा कि हमारे न्यूज चैनल के व्यवसाय में पैनलिस्टों के लिए एक अलिखित पदानुक्रम निर्धारित है, जिसे आप नस्लीय या जातीय भेद कह सकते हैं लेकिन यही सच्चाई है। उस समय में मीडिया में कोविंद बिल्कुल ही कम दिखे जब उन्हें दिखना चाहिए था। शायद मीडियाकर्मियों को वह अपमार्केट और दूसरे प्रवक्ताओं जैसे नहीं लगते थे। पत्रकार शायद खुद ही राय बना लेते थे कि टीवी की जनता इन्हें देखने और सुनने में रुचि नहीं लेगी। उस समय रिपोर्टिंग कर चुके एक पत्रकार ने बहुत ही सटीक ढंग से लिखा कि अपने शक्तिशाली माइकों के साथ पत्रकार सारा दिन राजीव प्रताप रूडी, प्रकाश जावड़ेकर और रविशंकर प्रसाद का इंतजार करते रहते थे लेकिन कोविंद की बाइट नहीं लेते थे। वह आगे लिखते हैं कि ऐसा नहीं कि सारी गलती पत्रकारों की ही थी। मीडिया दफ्तरों में बैठे आका तय करते थे कि किसकी बाइट लेनी है और किसे स्टूडियो में बैठाना है। ऐसे समय में जब जब कोई भी उपलब्ध नहीं होता था तब भी कोविंद की बाइट लेने से इनकार कर दिया जाता था।

मोदी के दौर की फिल्म है बाहुबली

फिल्म बाहुबली पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

आंकड़े बता रहे हैं कि बाहुबली भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी फिल्म बन चुकी है। फिल्म को रिलीज हुए दस दिन नहीं हुए और 1000 करोड़ रुपए का कोरबार कर अब तक के सारे रेकॉर्ड तोड़ चुकी है और आने वाले दिनों में नए प्रतिमान गढ़ेगी। ऐसे समय में सोचना चाहिए कि इस फिल्म ने ऐसा क्या बताने, दिखाने की कोशिश की गई जो अब तक की फिल्में नहीं कर पा रही थीं।
बाहुबली एक वैभवशाली, गौरवशाली अतीत के भारतीय राज्य और समाज का चित्रण करती है जो किसी कल्पना से कम नहीं लगता। ऐसा कहा जाता है कि जिसकी कल्पना की जा सकती है, उसे पाया भी जा सकता है। यह फिल्म हमारे सामने एक ऐसी आदर्श व्यवस्था प्रस्तुत करती है और साथ ही यह भी बताने की कोशिश करती है कि ऐसा आदर्श समाज, राज्य, नायक और प्रजा इस धरती पर पहले भी हुए हैं। लोगों में एक विश्वास भरती है कि हम भी कुछ कर सकते हैं। आम लोगों के बीच में पला बढ़ा नायक धर्म की स्थापना करता है और सत्य के लिए संघर्ष करता है।
वैसे तो हर समाज को एक नायक की तलाश रहती है लेकिन एक ऐसा समाज जिसके पास बताने के लिए 5000 साल के गौरव की कहानी हो, उसे हमेशा यह जानने की उत्सुकता रहती है कि उसके अलग-अलग दौर का नायक कैसा था और उसका आज का नायक कैसा होगा।

वैसे कई फिल्म रिव्यू पढ़कर ऐसा लगा कि कुछ लोगों को बाहुबली फिल्म अजीब लगी। यह हमारी माया नगरी में होना स्वाभाविक भी है क्योंकि यहां सीरियल किसर और पॉर्न स्टार को हमारे ऊपर नायक और नायिका के रूप में थोपा जाता है जिनकी कहानियों का कथानक उस काली कोठरी से गुजरने जैसा होता है जिसमें आपका जिस्म और मन दोनों के काले होने के निकलने की संभावना बहुत बढ़ जाती है लेकिन डार्क और रियलिस्टिक सिनेमा के नाम पर आपके सामने फूहड़ता परोस दी जाती है।
दिए हुए वचन के लिएसत्य और न्याय के लिएधर्म स्थापना के लिएकिसी के भी विरुद्ध जाना पड़े, वो चाहे परमात्मा ही क्यों न होतो भयभीत ना होयही धर्म है’- आज के दौर में जब संप्रेषण के सबसे प्रभावी माध्यम से यह संवाद डॉल्बी डिजिटल में गूंजता है तो हर भारतीय के सामने एक आदर्श प्रस्तुत होता है। समाज के बीच से निकला नायक अपनी मां, प्रेमिका, जनता और राज्य के लिए कैसे न्यायोचित, तर्कसंगत और धर्मनिष्ठ भूमिका निभाता है ये हमें इस फिल्म से पता चलता है।

क्या आंबेडकर राष्ट्रवाद के खिलाफ थे?

डॉ भीमराव अंबेडकर और राष्ट्रवाद पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

भारत रत्न डॉ. भीम राव आंबेडकर आज के दौर में भारत के सबसे महान नेता, विचार और सामाजिक दार्शनिक के रूप में उभर कर आए हैं। उनके जन्मदिवस की 125 वर्षगांठ उनके जन्मशताब्दी वर्ष से अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाई गई। एक बड़ी पत्रिका ने उन्हें आधुनिक भारत का महानतम नेता बताया। इस तरह से कहा जा सकता है कि आंबेडकर के विचार वर्तमान दौर के विमर्श में और अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं।
1947 से पहले स्वतंत्रता ही देश का मुख्य स्वर था और साथ में कई अलग-अलग स्वर भी थे। सबसे प्रभावशाली स्वर कांग्रेस का था जो अंग्रेज उपनिवेशवादियों से देश को आजाद कराना चाहते थे। एक स्वर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी था जो तब तक बहुत कमजोर था और भारत के पुनर्निमाण की बात कर रहा था। उनका मानना था कि भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को मजबूत करके ही देश का पुनरुद्धार किया जा सकता है।
इसी दौर में आंबेडकर भी एक मजबूत स्वर के रूप में उभरे। उन्होंने सामाजिक असमानता और छुआछुत से आजादी की बात कही। इसे राष्ट्रवाद का सबाल्टर्न रूप कह सकते हैं जिसमें नीचे से आवाजें उठती हैं और जो समाज के सबसे कमजोर, वंचित और शोषित वर्ग की बात करता है जो औपनिवेशक भारत के सामाजिक जीवन में कहीं हिस्सा नहीं ले रहा था। बाबा साहब आंबेडकर इन 6 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि बन गए। समाज के इस वर्ग की मुक्ति के बिना भारत का स्वतंत्रता आंदोलन पूर्ण नहीं था। 20वीं सदी के भारत की आजादी का आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों से राजनीतिक शक्ति हासिल करना नहीं था बल्कि भारत को रूढ़िवादी परंपराओं और संस्थाओं से मुक्ति दिलाकर एक आधुनिक राष्ट्र बनाना भी था।
आंबेडकर के प्रयासों के कारण ही ये विचार विकसित हुआ कि हमें आंतरिक और बाहरी गुलामी से स्वतंत्रता पानी है। इसके परिणामस्वरूप हमारे राष्ट्रवादी आंदोलन को आंतरिक मजबूत से किया और उसका सामाजिक आधार फैलाया।
आंबेडकर राष्टवाद के खिलाफ नहीं थे लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रवाद के खिलाफ थे जो भारत को अंग्रजों से आजाद करने की बात तो करता था लेकिन ब्राह्मणवादी शोषण पर चुप था जिसके कारण करोड़ों लोग सैकड़ों सालों से शोषण का शिकार थे। आंबेडकर के दबाव में ही कांग्रेस ने वंचित वर्ग की समस्याओं का राजनीतिक स्तर पर संज्ञान लिया जिससे अधिक से अधिक लोग आजादी के आंदोलन से जुड़ने लगे।

शुरुआत से ही आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति उच्चवर्ग (ऊंची जाति) से प्रभावित थी जिसमें उसी वर्ग के लोगों के हित की बात की जाती थी। इसलिए जब इन राष्ट्रवादीनेताओं ने राष्ट्रीय हितों की बात कही तो बस अपने वर्गीय हितों की बात कही। इस प्रवृत्ति को पंडित नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इन शब्दों में देखा जा सकता है, दर्शन और धर्म, इतिहास और परंपरा, सामाजिक तानेबाने और रीतिरिवाज के मिश्रण से ही भारतीय जनजीवन लगभग सभी हिस्से बनकर तैयार होते हैं जिसे ब्राह्मणवाद या हिंदू कहा जा सकता है और यही भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है।

Wednesday 21 November 2018

डॉ भीम राव अंबेडकर - देश और समाज की एकता के महान रक्षक


डॉ भीमराव अंबेडकर की जयंती पर रोजगार समाचार में प्रकाशित मेरा लेख. 

भारत एक सनातन सभ्यता है. यहां संघर्ष, समन्वय और समरसता साथ-साथ चलती रहती है. लेकिन समस्या तब होती है जब कुछ लोग अपने हित साधने के लिए समाज में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करने लगते हैं जिससे कभी-कभी देश की एकता और अखंडता को भी खतरा उत्पन्न होने लगता है. भारत में जाति से जुड़ी समस्याएं भी कुछ ऐसा ही रूप धर कर सामने आ रही हैं. ऐसे समय में संविधान निर्माता डॉ भीम राव अंबेडकर और भी  प्रासंगिक होकर उभरते हैं.
गांधी से अंबेडकर की ओर
इस दशक में अंबेडकर हमारे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में कुछ इस तरह उभरे हैं कि वो महात्मा गांधी से भी महत्वपूर्ण नजर आते हैं. इसका एक कारण ये हो सकता है कि जहां गांधी ने अहिंसक तरीकों से सिर्फ राजनीतिक आजादी और समानता की बात कही वहीं अंबंडकर शुरू से सामाजिक-आर्थिक समानता की बात कर रहे थे. देश को १९४७ में आजादी मिल गई और संविधान ने हम सब को एक व्यक्ति-एक मत के माध्यम से राजनीतिक समानता भी दे दी. पिछले सत्तर साल में राजनीतिक समानता का काम काफी हद तक पूरा भी हो चुका है लेकिन समाजिक और आर्थिक स्तर पर समानता और आजादी मिलना अभी बाकी है. भारतीय संविधान के प्रमुख लक्ष्यों में जिस सामाजिक और आर्थिक समानता, न्याय और स्वतंत्रता की बात कही गई है उस पर कुछ काम ही हो पाया है और बहुत तरीकों से काम किया जाना बाकी है. ऐसे ही दौर में डॉ अंबेडकर एक प्रकाश स्तंभ बनकर उभरते हैं जो हम सबको रास्ता दिखाते हैं. डॉ अंबेडकर स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी इस बात के समर्थक थे कि राजनीतिक आजादी के कोई मायने नहीं होंगे अगर सामाजिक-आर्थिक स्तर पर शोषण जारी रहा और हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. 
डॉ अंबेडकर ने एक ऐसे भविष्य की कल्पना की थी जो पूरी तरीके से परिवर्तनकारी होगा. भारत को अगर सही अर्थों में एक प्रगतिशील, आधुनिक और विकसित समाज और राज्य बनने की तरफ तेजी से बढ़ना है तो अंबेडकर के विचारों को मूर्त रूप देने के लिए अथक प्रयास करने होंगे. 

पहचान से संसाधन की ओर

भारत में सामाजिक-राजनीतिक विमर्श तेजी से करवट ले रहा है. पहचान की राजनीति का एक दौर अब खत्म होने को है. आज हर भारतीय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक मिला हुआ है. हमें पिछले कुछ दशकों में देखा की देश में दलित राजनीति ने अपना प्रमुख स्थान बनाया. आज हर राजनीतिक दल उन्हें संगठन और सरकार में जगह देने के लिए आतुर है. लेकिन सिर्फ इससे सामाजिक-रानीतिक न्याय सुनिश्चित नहीं हो जाता. इसलिए हमें समय के इशारे को समझते हुए संसाधनों की राजनीति के नए दौर में प्रवेश करना होगा जहां संसाधनों और मूल्यों का सभी में समान वितरण संभव हो सके. ऐसे में यहां सवाल ये उठता है कि क्या सिर्फ सरकारी नौकरी देकर संसाधनों का पुनरवितरण सुनिश्चित किया जा सकता है. ऐसा संभव नहीं लगता क्योंकि सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है और पिछले कुछ सालों में करोड़ों की संख्या में वंचित समाज के लोगों अच्छी शिक्षा ग्रहण की है. सभी को सरकारी नौकरियों में नहीं लगाया जा सकता. ऐसे समय में उद्यमिता एक बड़ा समाधान बनकर सामने आती है जिसमें वंचित समाज के युवाओं को नौकरी मांगने वाले की जगह नौकरी देने वाला बनाने पर जोर है. दलित चैंबर औफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री इस दिशा में एक अच्छी पहल है. लेकिन इन सबसे पहले बैकलॉग की नौकरियों को केंद्रीय और राज्य के स्तर पर भर दिया जाना चाहिए.
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार समाज के बीच की दूरी को खत्म करने और सामाजिक और आर्थिक सुनिश्चित करने के सभी प्रयास कर रही है. सरकार एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास कर रही है जिसमें दलित उद्यमिता को बढ़ावा दिया जा सके. स्टैंड अप, दलित वेंचर कैपिटलिस्ट फंड और मुद्रा कुछ ऐसी स्कीमें हैं जहां समाज के कमजोर तबके को आसानी से लोन दिए जाने की व्यवस्था की गई है.  एक तरफ जहां सरकार इस तरह की भविष्य की स्कीमें बनाकर सामाजिक समानता और न्याय सुनिश्चित कर समरसता का वातावरण बनाने की कोशिश कर रही है वहीं कुछ ऐसी ताकतें हैं जो समाज के कुछ वर्गों में दूरी (सेंस ऑफ अदरनेस) बनाने की कोशिश में लगे हैं.
ऐसे कठिन समय में डॉ अंबेडकर और भी प्रासंगिक हो जाते हैं जिन्होंने हमेशा देश और समाज को जोड़ने का ही प्रयास किया.

जाति-विहीन समाज

अंबेडकर ने एक जाति विहान समाज की कल्पना की थी. आज के दौर में हमें अगर इस दिशा में आगे बढ़ना है तो जाति से जुड़े हुए सवालों का एक समयबद्ध तरीके से समाधान निकालना ही होगा अगर हमें समग्र रूप से अपने समाज में एक गुणात्मक बदलाव आने वाले समय में देखना है. हमारे विकास की गुणवत्ता समाज की एकता पर काफी हद तक निर्भर करती है जो आज बहुत कमजोर है और जिसका कुछ लोग फायदा उठाकर देश को पीछे धकेलना चाहते हैं.  
राष्ट्रीय एकता
अंबेडकर ने देश और समाज को एक और मजबूत बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए. उनकी सफलता इसमें है कि उन्होने सबसे पहले समस्या को पहचाना और उस पर पुरजोर चोट करने की कोशिश की. देश और समाज की एकता बनाए रखने के लिए उन्होंने पहले आजादी के आंदोलन के दौरान और फिर संविधान निर्माता के रूप में अपना योगदान दिया. उनका साफ तौर पर मानना था कि भारतीय सभ्यता के विकास में जाति सबसी बड़ी बाधा है जिसे दूर किया जाना चाहिए.
अंबेडकर ने सामाजिक असमानता और छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाई. वो उन छह करोड़ लोगों की आवाज बन गए जो समाज के सबसे निचले पायेदान पर आते थे और किसी भी तरीके से मुख्यधारा में शामिल नहीं थे. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों से आजादी का अभियान नहीं था बल्कि वो एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण की लड़ाई थी जिसमें दासता के साथ-साथ असमानता और अन्याय का कोई स्थान नहीं था. अंबेडकर ने जो संघर्ष किया वो आंतरिक शोषण और दासता के खिलाफ था जिसके बिना आजादी अधूरी थी. भारतीय समाज के इस आंतरिक सशक्तीकरण से भारतीय राष्ट्रवाद का सामाजिक आधार और अधिक मजबूत और व्यापक हुआ. अंबेडकर के द्वारा मिली राजनीतिक चुनौती ने कांग्रेस को मजबूर किया कि उसने अस्पृश्यता की समस्या को महत्व दिया और संविधान के माध्यम बहुत से प्रावधान बनाकर उन्हें दूर करने की कोशिश की. 

सामाजिक-राजनीतिक एकता

अंबेडकर ने समाज के निचले तबके पर पड़ी तिरस्कृत जातियों के सवाल को उठाया और उन्हें एक नई राजनीतिक ऊंचाई देते हुए लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के साथ जोड़ दिया. अंबेडकर ने राजनीति से पहले समाज को महत्व दिया और दोनों को जोड़ते हुए एक नया विमर्श खड़ा किया जो पहले नहीं देखा गया था.  गांधी ने भी ऐसे प्रयोग करने की कोशिश की थी लेकिन उनमें आक्रामकता की कमी दिखती थी. अंबेडकर के अनुसार, सामाजिक एकता के बिना राजनीतिक एकता लाना संभव नहीं है. अगर कुछ समय के लिए ऐसा हो भी जाता है तो वो उस छोटे पौधे की तरह होगा जो किसी तेज हवा में उड़ सकता है. राजनीतिक एकता के साथ भारत सिर्फ एक राज्य के रूप में रह सकता है. लेकिन राज्य और राष्ट्र में फर्क होता है. ऐसा राज्य अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ता रहेगा और उसके बचने की संभावना कम होती है.
अंबेडकर की आस्था
अंबेडकर की भारत के पुरातन परम्पराओं और आध्यात्म में पूरी श्रद्धा थी. वो भारतीय दर्शन और वांगमय के आध्यात्मिक पहलू से सहमत थे लेकिन कर्मकांडी पहलुओं से उन्हें सख्त गुरेज था. उन्हें जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कही जो पिछले कुछ सौ सालों में विकसित हुई थी ना कि धर्म व्यवस्था को जो हजारों साल से इस सभ्यतागत विमर्श का हिस्सा थी.  उन्होंने भारत में धर्म के महत्व को समझा था इसीलिए जब उन्हें धर्म परिवर्तन करना था तो किसी अब्राहमिक पंथ की जगह उन्हें भारत से उपजे बौद्ध धर्म को अपनाना ही उचित समझा.
अंबेडकर का मानना था कि लोकतंत्र के ऐतिहासिक प्रमाण बारत में बुद्ध से भी पहले मिलते हैं. उनका कहना था कि बौद्ध भिक्षु संघ की संरचना में संघ का तात्पर्य संसदीय प्रणाली से ही था जहां समूह में चर्चा होती थी और मिलकर निर्णय लिये जाते थे. उनका कहना था कि हिंदुओं ने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का विचार कहीं बाहर से उधार नहीं लिया है. ये सिद्धांत भारतीय धर्म-दर्शन पूरी तरीके से मौजदू हैं. अपनी पुस्तक रिडिल्स इन हिंदुइज्म में उनका मानना है कि हिंदू धर्म में सामाजिक लोकतंत्र बनने के आध्यात्मिक बिंदु विद्यमान हैं.

संविधान निर्माता के रूप में

संविधान निर्माता के रूप में भी अंबडकर ने भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता-अखंडता को और मजबूत बनाने की कोशिश की. उन्होंने कश्मीर में धारा ३७० का विरोध किया जब पंडित नेहरू ने शेख अब्दुल्लाह की बात सुनते हुए उसे पारित करवा दिया. अंबेडकर ने शेख अब्दुल्लाह को लिखा था ऐसा संभव नहीं कि भारत सरकार आपको हर तरह की मदद दे लेकिन उसके पास कश्मीर के संबंध में सीमित शक्तियां ही हों. ऐसे किसी भी प्रस्ताव का समर्थन करना देशद्रोह होगा और मैं ऐसा नहीं कर सकता.
क्षेत्रीय, भाषाई और साम्प्रादायिक दिक्कतों से ऊपर उठते हुए अंबेडकर ने सच्चे लोकतंत्रवादी की तरह समान नागरिक संहिता की बात कहते हुए लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया. समान नागरिक संहिता पर उनके विचार नेहरू से बहुत अलग थे जिन्होंने सिद्धांत में तो इसे स्वीकार किया था लेकिन उसे संसद में पारित नहीं करवा पाए थे. वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर ने संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द बंधुत्व पर बहुत जोर दिया जिसे सभी भारतियों में भाईचारा की भावना विकसित की जा  सके.
डॉ अंबेडकर ने अपने पहले भाषण में ही एक मजबूत केंद्र सरकार बनाने की बात कही थी जिससे भारत की स्वतंत्रता में बाधा ना पहुंचे जैसा कि देश के विभाजन और दूसरे अन्य मौकों पर पहले हो चुका था. उनकी इस बात को सदन ने माना था और बाद में ये बिंदु संविधान के आपातकालीन प्रावधान के माध्यम से शामिल किए गए थे. आज सामान्य समय में राज्यों के पास कापी शक्तियां हैं लेकिन देश पर संकट होने की स्थिति में केंद्र सरकार के पास बहुत सी शक्तियां आ जाती हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि अंबेडकर ने अन्यायपूर्ण सामाजिक स्तरीकरण का विरोध किया लेकिन ऐसा नहीं कह सकते कि वो भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ थे. अंबेडकर कहते हैं, मैं जानता हूं कि मेरी स्थिति को इस देश में सही ढंग से नहीं समझा गया. जब भी मेरे और मेरे देश के हितों के बीच टकराव होगा तो मेरे लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होंगे. मैंने कभी व्यक्तिगत लाभ के लिए काम नही किया लेकिन देश की बात आने पर पीछे भी नहीं हटा.
अंबेडकर देश और समाज की एकता और अखंडता के रक्षक थे. वो एक ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होने समाज के सबसे कमजोर, वंचित तबके की समस्याओं को समझा था और उन्हें मुख्यधारा में लाने का काम किया था. उन्होने भारतीय राष्ट्रवाद का सामाजिक आधार बढ़ाया जिससे पहले तो अधिक से अधिक लोग स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो सके और बाद में देश के विकास में आगे बढ़ सके. आज जब देश में समावेशी राजनीति का विमर्श जोरों पर है तो अंबेडकर को समझना और भी प्रासंगिक हो जाता है.