स्वामी विवेकानंद पर रोजगार समाचार मे प्रकाशित
मेरा लेख
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे आदर्श युवा हुए हैं,
जो
भारत में जन्मे परंतु जिन्होंने विश्वभर के करोड़ों युवाओं को प्रेरित किया. 1893
में शिकागो धर्म संसद में दिए गए भाषण की बदौलत वे पश्चिमी जगत के लिए भारतीय
दर्शन और अध्यात्मवाद के प्रकाशस्तंभ बन गए. उसके बाद से वे युवाओं के लिए एक
सदाबहार प्रेरणा स्रोत रहे हैं. 21वीं सदी में जबकि भारत के युवाओं को नई
समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, वे अपने दायरों से बाहर आ रहे हैं और
बेहतर भविष्य की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में स्वामी विवेकानंद उनके लिए और भी
प्रासंगिक हो गए हैं. जीवन अगर सार्थक नहीं है, तो उसे सफल नहीं
कहा जा सकता. युवाओं की सबसे बड़ी खोज ऐसे सार्थक जीवन की है, जो
हृदय को प्रेरित, मस्तिष्क को मुक्त और आत्मा को प्रज्ज्वलित
करे. स्वामी विवेकानंद इसे अच्छी तरह समझते थे. उनके विचारों को इस चार सूत्री
मंत्र के जरिए समझा जा सकता है, जिसमें सार्थक जीवन के लिए भौतिक,
सामाजिक,
बौद्धिक
और आध्यात्मिक खोज अनिवार्य है. भौतिक खोज से उनका अभिप्राय: है - मानव शरीर की
देखभाल करना और ऐसी गतिविधियों को अंजाम देना, जो शारीरिक
कष्टों को कम करने वाली हों. इसका लक्ष्य युवाओं को कोई कार्य करने के लिए शारीरिक
दृष्टि से तैयार करना है. अगला स्तर सामाजिक खोज का है, जिसमें ऐसी
गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है, जो भौतिक कष्ट कम करने वाली हों.
अस्पतालों, अनाथालयों और वृद्धावस्था आश्रमों का संचालन
इसी स्तर के अंतर्गत आता है. अगला उच्चतर स्तर बौद्धिक खोज का है. इसके अंतर्गत
विद्यालय, महाविद्यालय संचालित करना और जागरूकता एवं सशक्तिकरण कार्यक्रमों का
संचालन शामिल है. किसी व्यक्ति द्वारा अपना बौद्धिक स्तर उन्नत बनाना, ज्ञान
प्राप्त करना और उसका समाज में प्रचार-प्रसार करना इस श्रेणी के अंतर्गत आता है. गहन
चिंतन करने वालों के लिए वे सर्वोच्च स्तर की आध्यात्मिक सेवा का सुझाव देते थे,
जिसमें
ध्यान और साधना शामिल है. परंतु ये स्तर कोई जल विभाजक नहीं है, कोई
व्यक्ति एक स्तर पर काम करते हुए अन्य स्तर पर भी काम कर सकता है, जो
उसकी खोज, क्षमता और पहुंच पर निर्भर है. उनकी खोज में बदलाव होने पर वे अन्य
स्तरों पर भी जा सकते हैं.
भौतिक खोज
विवेकानंद भलीभांति समझते थे कि अधिकतर युवा
सार्थक अस्तित्व हासिल करने की आकांक्षा रखते हैं, परंतु वे सभी
अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढऩे के लिए बौद्धिक और शारीरिक क्षमता से युक्त नहीं
होते हैं. इसलिए स्वामीजी युवाओं से कहते थे कि वे अपनी आशंकाओं और भय पर नियंत्रण
करें तथा शारीरिक और बौद्धिक दृष्टि से सुदृढ़ बनें. उन्होंने कहा था ‘‘हर
चीज से डरना छोड़ो. आप शानदार काम करेंगे. जैसे ही आपको भय लगता है, तो
आपका कोई अस्तित्व नहीं रहता है. दुनिया में भय ऐसी वस्तु है, जो
कष्ट का सबसे बड़ा कारण बनती है. भय रहित होना ऐसी स्थिति है, जो
एक क्षण में स्वर्ग बना सकती है. शक्ति आपके भीतर है. आप कुछ भी कर सकते हैं और सब
कुछ कर सकते हैं. अपने पर भरोसा करें. यह मत समझो कि तुम कमजोर हो; जागो
और अपने भीतर दिव्य को महसूस करो. इसलिए उठो, जागो और तब तक
मत रुको, जब तक कि लक्ष्य हासिल न हो जाए.’’
विवेकानंद का विचार था कि युवा स्वयं अपने लिए
या किसी अन्य के लिए सफल जीवन तभी जी सकते हैं, जब वे शारीरिक
दृष्टि से उपयुक्त हों. उनका विश्वास था कि सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करने के
वास्ते ऊर्जा और क्षमता की आवश्यकता है,
अत:
उन्होंने युवाओं से कहा था कि वे बौद्धिक ऊर्जा और शारीरिक तंदरुस्ती दोनों को
हासिल करने का प्रयास करें. विवेकानंद युवाओं से चाहते थे कि उनकी ‘मांसपेशियां
लौह की हों’ और ‘नसें इस्पात की हों’. उन्होंने
कहा था ‘‘आप गीता पढऩे की बजाए फुटबाल के जरिए आकाश तक पहुंच सकते हैं’’.
वे
मानव शक्ति के कट्टर समर्थक थे और कहते थे कि ‘‘शक्ति ही जीवन
है, कमजोरी मृत्यु है’’ और शक्ति के बिना कोई भौतिक जीवन नहीं
जी सकता.
सामाजिक खोज
विवेकानंद युवाओं से यह अपेक्षा करते थे कि वे
सामाजिक गतिविधियां संचालित करें, न केवल समाज की बेहतरी के लिए बल्कि
अपने व्यक्तिगत विकास और वृद्धि के लिए भी सामाजिक कार्य करें. उन्होंने यह महसूस
किया था कि समाज की सेवा करने की ‘परिणति’ उसे करने वाले
व्यक्ति की सामाजिक और आध्यात्मिक वृद्धि की ‘‘समाप्ति’’
के
रूप में सामने आती है. उन्होंने युवाओं को सलाह दी थी कि वे ‘‘मानव
में ईश्वर की सेवा’’ करें. विवेकानंद ने अध्यात्मवाद को समाज सेवा
के साथ जोड़ा. उन्होंने कहा, ‘‘अगले 50 वर्षों तक
सिर्फ महान भारत माता की सेवा ही हमारा ध्येय वाक्य होना चाहिए. तब तक के लिए सभी
भगवान हमारे दिमाग से निकल जाने चाहिएं’’.
हृदय की पवित्रता और समाज की बेहतरी के लिए वे ईश्वर के स्थान पर
जनसाधारण की उपासना की सलाह देते थे. विवेकानंद ने कहा था ‘‘चित्त शुद्धि’’
अथवा
हृदय की पवित्रता आवश्यक है, जो आसपास के लोगों की पूजा के जरिए
प्राप्त की जा सकती है. उन्होंने उपदेश दिया कि हमारे इर्दगिर्द विद्यमान मानव और
जीव जंतु ही ईश्वर हैं जो हमारी पूजा और सेवा के योग्य हैं. उन्होंने इस बात पर
जोर दिया कि ‘‘हमारा प्रथम ईश्वर अपने देशवासियों की पूजा है.
हमें उनकी पूजा करनी है न कि एक दूसरे से ईष्र्या और झगड़ा करना है.’’
नए भारत के निर्माण में स्वामी विवेकानंद का बेजोड़
योगदान यह रहा कि उन्होंने दलितों के प्रति भारतीयों के दायित्व के बारे में उनके
मस्तिष्क मुक्त बनाने का काम किया. उन्होंने जन-जन के लिए आवाज बुलंद की, सेवा
का एक निश्चित दर्शन तैयार किया, और बड़े पैमाने पर सामाजिक सेवा
संचालित करने का नेतृत्व किया. भारतीय युवाओं से समाज सेवा की अपील करते हुए,
विवेकानंद
ने कहा, ‘‘बाकी सब कुछ तैयार हो जाएगा, परंतु सुदृढ़, शक्तिशाली,
भरोसेमंद
युवाओं की आवश्यकता होगी, जो अपने आधार के प्रति ईमानदार हों.
ऐसे सौ लोग विश्व में क्रांति ला सकते हैं.
विवेकानंद ने शारीरिक स्फूर्ति और समाज सेवा का
समर्थन किया, परंतु युवाओं से यह भी कहा कि वे दोनों जगतों
को समझने के लिए अपनी बौद्धिक ताकत बढ़ाएं. उन्होंने सबके लिए शिक्षा पर बल दिया.
उन्होंने कहा ‘‘शिक्षा जानकारी की ऐसी मात्रा भर नहीं है,
जिसे
आपके मस्तिष्क में रख दिया जाए, जो वहां हुड़दंग मचाती रहे, और
जीवनभर जिसे पचाया न जा सके, बल्कि शिक्षा जीवन बनाने वाली, व्यक्तित्व
बनाने वाली और चरित्र बनाने वाले विचारों को सम्मिलित करने वाली होनी चाहिए.’’
भारतीय समाज के पुनर्निर्माण के लिए स्वामी
विवेकानंद ने अनेक उपाय सुझाए, जिनमें शिक्षा लोगों के सशक्तिकरण के
लिए प्राथमिक साधनों में से एक है. उन्होंने एक बार कहा था ‘‘शिक्षा,
वही
सार्थक है, जो जन-साधारण को जीवन के प्रति संघर्ष के लिए
तैयार करे, जो चरित्र की शक्ति उद्घाटित करे, दर्शन
की भावना पैदा करे, और एक शेर जैसा
साहस पैदा करेे. वास्तविक शिक्षा वह है, जो व्यक्ति को पैरों पर खड़ा करे.’’
उनके
लिए शिक्षा सीखने की एक प्रक्रिया है, जो चरित्र का निर्माण करती है और
युवाओं में मानव मूल्यों का संचार करती है.
आध्यात्मिक खोज
स्वामी विवेकानंद पश्चिमी सभ्यता की प्रशंसा
करते थे, परंतु वे भारतीय दर्शन और अध्यात्म के साथ प्रेम करते थे. उन्होंने
सुझाव दिया था कि युवा पश्चिम से बहुत सारी चीजें सीख सकते हैं, लेकिन
उनका भरोसा अपनी आध्यात्मिक धरोहर में अवश्य होना चाहिए. उन्होंने कहा था ‘‘पश्चिम
के चिंतनशील व्यक्ति हमारे प्राचीन दर्शन में, विशेषकर वेदांत
दर्शन में, चिंतन की वह नई धारा पाते हैं, जिनकी
उन्हें तलाश है, जो उनके लिए बौद्धिक भूख और प्यास बुझाने के
लिए आध्यात्मिक भोजन और पेय के समान है.’’
आज जब हमारा युवा भौतिक सफलता के बावजूद अपने
को अत्यधिक अकेला, उद्देश्यहीन, तनावग्रस्त और
मानसिक रूप से थका हुआ महसूस करता है, तो जीवन के बृहत्तर लक्ष्यों के प्रति
विवेकानंद के विचार उसे मुक्ति प्रदान करते हैं. वे युवाओं को सलाह देते हैं कि वे
आध्यात्मिक खोज की दिशा में आगे बढ़ें और बृहत्तर लक्ष्य हासिल करें. उनका कहना है,
‘‘जीवन
अल्पावधि है, आत्मा अजर और अमर है, तथा मृत्यु
निश्चित है, अत: हमें एक महान आदर्श को चुन कर अपना समूचा
जीवन उसके प्रति समर्पित कर देना चाहिए.’’
एक बार जीवन में कठिनाइयों के बारे में भाषण
देते हुए विवेकानंद ने ‘त्याग’ या ‘बलिदान’ और ‘सेवा’
अथवा
‘नि:स्वार्थ सेवा’ के विचारों के साथ राष्ट्रव्यापी स्तर
पर जीर्णोद्धार का आह्वान किया. उन्होंने इन विचारों को युवाओं के जीवन को आकार
देने के सर्वाधिक आवश्यक पहलू बताया. स्वामी विवेकानंद ने इस बात पर बल दिया कि
जीवन की यही पद्धति ‘आध्यात्मिक खोज’ है. इस दर्शन के
केंद्र में जीत और भौतिक संपदा की क्षणभंगुरता निहित है. उन्होंने युवाओं का
आह्वान किया कि वे एक नेक विचार, उच्च आदर्श और उच्चतर स्थिति के लिए
जियें ताकि वे क्षणभंगुरता पर नियंत्रण कर सके.
राष्ट्र निर्माण
विवेकानंद ने इन चार खोजों को युवाओं के लिए
आदर्श और लक्ष्य के रूप में रखा. इन सेवाओं का प्रयोजन व्यक्तिगत और राष्ट्रीय
चेतना का विकास करना था. उन्होंने भारत नाम की इस भूमि की सभ्यता मूल्य प्रणाली
में विश्वास व्यक्त किया. इसलिए उन्होंने युवाओं का आह्वान किया कि वे राष्ट्र
निर्माण की दिशा में अपनी सामूहिक ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करें. भारत के बारे में
उनका लक्ष्य एक रूपांतरित समाज का था, जो गरिमा, आजादी और
आत्मविश्वास से प्रेरित हो और जिसका आधार शक्ति, प्रेम और सेवा
हो. उन्होंने परिकल्पना की थी कि ऐसा भारत समता पर आधारित समाज होगा, जो ऊंच-नीच की भावना से मुक्त होगा. उन्होंने समाज की एकता की भी बात की, जिसकी
आवश्यकता आज की दुनिया में उस समय महसूस की जाती है, जब हम विभिन्न
स्तरों पर संघर्ष देखते हैं. स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘‘भारत में जाति
समस्या का समाधान ऊंची जातियों को नीचे लाने में नहीं है, बल्कि समाज के
निचले स्तर के लोगों को ऊंचे स्तर पर पहुंचाने में है.’’
निष्कर्ष
स्वामी विवेकानंद को कभी कभी कर्मयोगी कहा जाता
है, जो सर्वथा उपयुक्त है. उन्होंने अपनी शिक्षाओं को अपने जीवन से सिद्ध
किया. उन्होंने आध्यात्मिक चेतना का मार्ग चुना और इस भौतिक जगत में दूसरों के
मानसिक और शारीरिक कष्टों को दूर करने का प्रयास किया. उन्होंने समाज के सर्वाधिक
दलित और उपेक्षित लोगों के बीच काम किया और उन्हें ईश्वर समझा, जो
उनकी शिक्षाओं के अनुरूप था. उन्होंने सर्वाधिक अलग-थलग वर्ग की सेवा करते समय
अपनी सामाजिक चेतना का विकास किया और उसे सामाजिक कार्य में तब्दील किया.
स्वामी विवेकानंद की प्रासंगिकता आज इस बात में
है कि उन्होंने युवाओं के लिए आदर्श और लक्ष्य निर्धारित किए. उन्होंने इन
लक्ष्यों को भौतिक, सामाजिक, बौद्धिक और
आध्यात्मिक अन्वेषणों के जरिए हासिल करने के वैज्ञानिक मार्ग का सूत्रपात भी किया.
युवाओं को यह विकल्प प्रदान किया गया कि वे स्वामी विवेकानंद द्वारा बताए गए चार
में से कोई एक मार्ग का चयन करें और शांति, समृद्धि एवं
खुशहाली हासिल करें. लिंग, जन्म, जाति या अन्य
पहचान चिन्हों का भेद किए बिना चुनने की स्वतंत्रता इस मार्ग की स्वीकार्यता को कई
गुणा बढ़ा देती है.
स्वामी विवेकानंद और उनके संदेश को समझना और
उसे सभी युवाओं के सामने रखना उन अनेक समस्याओं के समाधान का सरलतम मार्ग है,
जिनका
सामना आज भारत को करना पड़ रहा है. प्रत्येक व्यक्ति अपने को बृहत्तर लक्ष्य के
लिए तैयार करते हुए स्वयं शुरुआत कर सकता है. उसे यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता
है कि उसकी भौतिक, मानसिक, सामाजिक और
मनोवैज्ञानिक शक्तियां सामने आने वाले कार्य के अनुरूप हैं.
स्वामी विवेकानंद मानव मस्तिष्क और बृहत्त मानव
समाज के एक महान पर्यवेक्षक थे. वे समझते थे कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन को शुरू
करने के लिए व्यापक ऊर्जा और इच्छा शक्ति की आवश्यकता है. इसलिए उन्होंने युवाओं
का आह्वान न केवल बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए किया, बल्कि शारीरिक
शक्ति बढ़ाने पर भी बल दिया.
जिम्मेदारी अब युवाओं पर है कि वे स्वामी
विवेकानंद द्वारा बताए गए मार्ग पर चलें और भारत को फिर से विश्व गुरू बनाने के
उनके सपने को साकार करें. युवाओं के लिए यह उचित समय है कि वे अपना भय दूर करने के
लिए आगे आएं, जैसा कि विवेकानंद ने कहा था, और
क्षणभंगुर को सशक्त, बीमार को स्वस्थ, कमजोर को ताकतवर
बनाते हुए तथा अस्थिरता के स्थान पर स्थिरता और निरर्थक को सार्थक बनाते हुए भारत
के निर्माण का बीड़ा उठाएं.
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