फिल्म बाहुबली पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित
मेरा लेख.
आंकड़े बता रहे हैं कि बाहुबली भारतीय फिल्म
इतिहास की सबसे बड़ी फिल्म बन चुकी है। फिल्म को रिलीज हुए दस दिन नहीं हुए और 1000
करोड़ रुपए का कोरबार कर अब तक के सारे रेकॉर्ड तोड़ चुकी है और आने वाले दिनों
में नए प्रतिमान गढ़ेगी। ऐसे समय में सोचना चाहिए कि इस फिल्म ने ऐसा क्या बताने,
दिखाने
की कोशिश की गई जो अब तक की फिल्में नहीं कर पा रही थीं।
बाहुबली एक वैभवशाली, गौरवशाली अतीत
के भारतीय राज्य और समाज का चित्रण करती है जो किसी कल्पना से कम नहीं लगता। ऐसा
कहा जाता है कि जिसकी कल्पना की जा सकती है, उसे पाया भी जा
सकता है। यह फिल्म हमारे सामने एक ऐसी आदर्श व्यवस्था प्रस्तुत करती है और साथ ही
यह भी बताने की कोशिश करती है कि ऐसा आदर्श समाज, राज्य, नायक
और प्रजा इस धरती पर पहले भी हुए हैं। लोगों में एक विश्वास भरती है कि हम भी कुछ
कर सकते हैं। आम लोगों के बीच में पला बढ़ा नायक धर्म की स्थापना करता है और सत्य
के लिए संघर्ष करता है।
वैसे तो हर समाज को एक नायक की तलाश रहती है
लेकिन एक ऐसा समाज जिसके पास बताने के लिए 5000 साल के गौरव की
कहानी हो, उसे हमेशा यह जानने की उत्सुकता रहती है कि उसके अलग-अलग दौर का नायक
कैसा था और उसका आज का नायक कैसा होगा।
वैसे कई फिल्म रिव्यू पढ़कर ऐसा लगा कि कुछ
लोगों को बाहुबली फिल्म अजीब लगी। यह हमारी माया नगरी में होना स्वाभाविक भी है
क्योंकि यहां सीरियल किसर और पॉर्न स्टार को हमारे ऊपर नायक और नायिका के रूप में
थोपा जाता है जिनकी कहानियों का कथानक उस काली कोठरी से गुजरने जैसा होता है
जिसमें आपका जिस्म और मन दोनों के काले होने के निकलने की संभावना बहुत बढ़ जाती
है लेकिन डार्क और रियलिस्टिक सिनेमा के नाम पर आपके सामने फूहड़ता परोस दी जाती
है।
‘दिए हुए वचन के लिए…सत्य और न्याय
के लिए…धर्म स्थापना के लिए…किसी के भी विरुद्ध जाना पड़े, वो
चाहे परमात्मा ही क्यों न हो…तो भयभीत ना हो…यही धर्म है’-
आज
के दौर में जब संप्रेषण के सबसे प्रभावी माध्यम से यह संवाद डॉल्बी डिजिटल में
गूंजता है तो हर भारतीय के सामने एक आदर्श प्रस्तुत होता है। समाज के बीच से निकला
नायक अपनी मां, प्रेमिका, जनता और राज्य
के लिए कैसे न्यायोचित, तर्कसंगत और धर्मनिष्ठ भूमिका निभाता है ये
हमें इस फिल्म से पता चलता है।
बाहुबली की नायिका भी साहस, शौर्य,
सुंदरता
से लबरेज है और हर कदम पर नायक के साथ संघर्ष करती है। देवसेना भयमुक्त है और जिसे
सुरक्षा नहीं चाहिए बल्कि वो खुद समाज और राज्य को सुरक्षित करने में अपनी बराबर
भूमिका निभाती है। बाहुबली की नायिका देवसेना पश्चिमी नारीवाद का भारतीय
प्रत्युत्तर है जो पुरुष के खिलाफ नहीं है लेकिन उस पर आश्रित भी नहीं है। तुलसी
का मर्यादा पुरुषोत्तम और कालीदास का मेघदूतम् यहां साथ-साथ दिखाई देता है।
प्रधानमंत्री मोदी जिस स्किल, स्केल
और स्पीड की बात करते हैं उसका यह बेहतरीन उदाहरण है। बाहुबली फिल्म का फलक बड़ा
है, संदेश भी व्यापक और स्पष्ट है। राज्य और समाज संचालन के नियम को
सरलता से सबके सामने रखता है। अधिकार के साथ-साथ कर्तव्यबोध का अहसास कराती ये
फिल्म सिर्फ एक उच्च कोटि के ड्रामा और मनोरंजन का पैकेज मात्र नहीं बल्कि हमारे
सभ्यतागत विमर्श में अतीत के गौरव का अहसास कराती एक कहानी है जिसे आज की व्यवस्था
में आदर्श की तरह लिया जाना चाहिए जहां ‘वचन ही है शासन’।
मेरे लिए कोई भी रचना (सिनेमा, कविता,
कहानी,
नॉवेल
आदि) मनोरंजन का साधन है या एक ऐसी दुनिया जो आपके समक्ष एक काल्पनिक आदर्श
(यूटोपिया) प्रस्तुत करता है। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो उसके होने का कोई अर्थ नहीं
है।
पिछले सौ साल में लोकप्रिय मुंबइया हिंदी
सिनेमा या तो पेड़ों के चारों तरफ नायक-नायिका को नचा रहा था या हाजी मस्तान से
लेकर दाऊद इब्राहिम जैसे खलनायकों का महिमा मंडन कर रहा था या सत्यजीत रे के साए
में एक ऐसा सेंसिबल सिनेमा रचने की कोशिश कर रहा था जो हिंदुस्तान की मुफलिसी,
बेचारगी
और पिछड़ेपन की ब्रैंडिंग और पैकेज कर अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में ताली का
मजा और पुस्कार लेने तक सीमित था। मेरी समझ यह कहती है कि सत्यजीत रे का सिनेमा
रुडयार्ड किपलिंग के ‘वाइट मेन्स बर्डन’ की थिअरी को
आजाद भारत में सही ठहराने और गोरे लोगों की सेंसिबिलिटी को संतुष्ट करने से अधिक
कुछ नहीं था।
अगर सत्यजीत रे का सिनेमा नेहरु के दौर का
प्रतिनिधित्व करता है तो बाहुबली मोदी के दौर का सिनेमा है जिसमें साहस है,
शौर्य
है, वैभवशाली और समर्थ भारत की एक कल्पना है। जहां नायक शपथ लेता है –
मैं…
महेंद्र
बाहुबली माहिषमति की असंख्य प्रजा और उनके मान और प्राण की रक्षा करूंगा, इसके
लिए यदि मुझे अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी तो पीछे नहीं हटूंगा।
यह फिल्म भारत के जन-गण-मन की उस सामान्य इच्छा
और लोकप्रिय इच्छा का प्रकटीकरण करती है जो हम सभी के अवचेतन मन में कहीं छुपी हुई
है।
जब फिल्म अपने दौरे के बदलावों को और अनदेखी सी
कल्पनाओं को कैप्चर करती है तो बड़े स्तर पर यूं ही स्वीकार कर ली जाती है। ऐसे
में कह सकते हैं कि बाहुबली भी उस भारतीय पुनरुत्थान का प्रकटीकरण है जो धीरे-धीरे
इस देश में हो रहा है।
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