Monday 26 November 2018

कोविंद अगर गुमनाम हैं, तो जिम्मेदार कौन है?

राष्ट्रपति चुनाव पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

राष्ट्रपति चुनाव की तस्वीर साफ हो चुकी है। एक तरफ बीजेपी और एनडीए ने बिहार के राज्यपाल और पूर्व राज्यसभा सांसद रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार घोषित किया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने 17 राजनीतिक दलों का साथ लेते हुए पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को आगे किया है। जब मीरा कुमार प्रत्याशी घोषित हुईं तो किसी को पूछना नहीं पड़ा कि दरअसल मीरा कुमार कौन हैं, क्योंकि इनके पिता इस देश के उपप्रधानमंत्री रह चुके हैं। वह खुद आईएफएस अधिकारी रही हैं, लोकसभा सांसद रही हैं, केंद्र में मंत्री रहीं और पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान लोकसभा में स्पीकर थीं। जीवन में बहुत कुछ उन्हें विरासत में ही मिला। उन तमाम चीजों के लिए उन्हें कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा, जिसके लिए उस समुदाय को जान की बाजी तक लगा देनी पड़ती है, जिसका वह प्रतिनिधित्व करती हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मीरा कुमार कांग्रेस की सामंतवादी राजनीति का ही हिस्सा हैं और वह देश की पहली इलीट दलित राजनीतिज्ञ हैं। हमें सोचना होगा कि क्या ऐसे अभिजनवादी को देश का राष्ट्रपति होना चाहिए।
जब रामनाथ कोविंद प्रत्याशी घोषित हुए तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सवाल उठाए कि आखिर ये कौन हैं? ऐसा करने वाली वह अकेली नहीं थीं। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने कहा कि वह (कोविंद) राजनीतिक रूप से कमतर हैं, सामाजिक पहचान ज्यादा नहीं हैं। कई ने उनके बारे में सुना नहीं था। कई लोगों ने कहा कि बीजेपी ने कोविंद पर दांव लगाकर बस दलित कार्ड भर खेला है।
अब हम सब जान चुके हैं कि रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं। दो बार के राज्यसभा सांसद रह चुके कोविंद पहले उच्चतम न्यायालय में वकालत करते थे और पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के सहयोगी रह चुके हैं। वह पहले आईआईएम कोलकाता के बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। आजकल वो अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष भी हैं, जिसके अपने सरोकार होते हैं जो मीडिया-सोशल मीडिया के लोगों को ज्यादातर नहीं दिखते या वो देखना नहीं चाहते। यहां सवाल यह उठता है कि इतना सक्रिय राजनीतिक और सामाजिक जीवन होने के बावजूद वो हमें दिखाई क्यों नहीं दिए या ऐसे कहें कि हमारी मीडिया ने उन्हें क्यों नहीं दिखाया?
अब जब कोविंद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन गए हैं तो कई सामाजिक-राजनीतिक चिंतकों और पत्रकारों ने यह सवाल उठाया है। वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा कि कोविंद के बारे मे सवाल पूछना हमारी राजनीतिक पत्रकारिता की हालत बयां करता है जो बाबा लोग और सूत्रों पर पूरी तरह आधारित है। मैंने पहले नहीं बताया कि रामनाथ कोविंद 2010 में बीजेपी के प्रवक्ता भी रह चुके हैं, जहां वो बीजेपी के मीडिया रूम में अपनी टिप्पणी, साक्षात्कार और बाइट देने के लिए उपस्थित रहते थे। लेकिन एक प्रवक्ता के रूप में हमने उनके बारे में बहुत कम सुना और देखा। वह पार्टी की आवाज के रूम में मौजूद थे लेकिन उनकी आवाज बहुतों के लिए मायने नहीं रखती थी।
शायद उस दौर के बीजेपी कवर करने वाले बहुत से पत्रकार उनकी बाइट लेना उचित नहीं समझते थे। वरिष्ठ पत्रकार नितिन गोखले ने ट्विटर पर लिखा कि हमारे न्यूज चैनल के व्यवसाय में पैनलिस्टों के लिए एक अलिखित पदानुक्रम निर्धारित है, जिसे आप नस्लीय या जातीय भेद कह सकते हैं लेकिन यही सच्चाई है। उस समय में मीडिया में कोविंद बिल्कुल ही कम दिखे जब उन्हें दिखना चाहिए था। शायद मीडियाकर्मियों को वह अपमार्केट और दूसरे प्रवक्ताओं जैसे नहीं लगते थे। पत्रकार शायद खुद ही राय बना लेते थे कि टीवी की जनता इन्हें देखने और सुनने में रुचि नहीं लेगी। उस समय रिपोर्टिंग कर चुके एक पत्रकार ने बहुत ही सटीक ढंग से लिखा कि अपने शक्तिशाली माइकों के साथ पत्रकार सारा दिन राजीव प्रताप रूडी, प्रकाश जावड़ेकर और रविशंकर प्रसाद का इंतजार करते रहते थे लेकिन कोविंद की बाइट नहीं लेते थे। वह आगे लिखते हैं कि ऐसा नहीं कि सारी गलती पत्रकारों की ही थी। मीडिया दफ्तरों में बैठे आका तय करते थे कि किसकी बाइट लेनी है और किसे स्टूडियो में बैठाना है। ऐसे समय में जब जब कोई भी उपलब्ध नहीं होता था तब भी कोविंद की बाइट लेने से इनकार कर दिया जाता था।
अगर आंकड़ों की मानें तो रामनाथ कोविंद देश के प्रथम नागरिक बनने से कुछ ही दिन दूर हैं। लेकिन उनके जैसे लाखों हैं जिनको देखा और सुना जाना अभी बाकी है। जो अपनी तरफ से सारे प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें भी सुना जाए। हम अपनी पारंपरिक संस्थाओं पर तो सवाल उठाते हैं कि वहां जाति के आधार पर भेदभाव हो रहा है लेकिन हमारे आधुनिक संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं। यहां जानकर और कई बार अनजाने में समाज के एक बड़े वर्ग को दूर रखा जाता है और भारत का मीडिया सेक्टर इसका एक बड़ा उदाहरण है।
आज रामनाथ कोविंद देश के उन करोड़ों नव-मध्यवर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए सामने आए हैं जो अपनी आकांक्षा को साकार रूप देने के लिए सभी सीमाओं को लांघते और तोड़ते हुए बड़ी मेहनत से आगे आए हैं। कोविंद का चुनाव करके प्रधानमंत्री मोदी ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना है जिसने हाशिये से उठते हुए मुख्यधारा में अपनी मेहनत से जगह बनाई है और करोड़ों लोगों के लिए एक उम्मीद जगाई है। रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन उन लाखों-करोड़ों अदृश्य नागरिकों का सम्मान है जो हाशिये से मुख्याधारा में आने की कोशिश में है। जब ऐसा नागरिक देश का राष्ट्रपति बनेगा तो वह हर संभव कोशिश करेगा कि मुख्यधारा और हाशिए के बीच की खाई को कम किया जाए। साथ ही एक वृहदधारा खड़ी की जाए, जिसमें हर नागरिक लिए स्थान हो। जब ये अदृश्य नागरिक भारत का प्रथम नागरिक बनेगा तो एक सर्वसमावेशी समाज की कल्पना साकार होगी।

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