Wednesday 21 November 2018

डॉ भीम राव अंबेडकर - देश और समाज की एकता के महान रक्षक


डॉ भीमराव अंबेडकर की जयंती पर रोजगार समाचार में प्रकाशित मेरा लेख. 

भारत एक सनातन सभ्यता है. यहां संघर्ष, समन्वय और समरसता साथ-साथ चलती रहती है. लेकिन समस्या तब होती है जब कुछ लोग अपने हित साधने के लिए समाज में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करने लगते हैं जिससे कभी-कभी देश की एकता और अखंडता को भी खतरा उत्पन्न होने लगता है. भारत में जाति से जुड़ी समस्याएं भी कुछ ऐसा ही रूप धर कर सामने आ रही हैं. ऐसे समय में संविधान निर्माता डॉ भीम राव अंबेडकर और भी  प्रासंगिक होकर उभरते हैं.
गांधी से अंबेडकर की ओर
इस दशक में अंबेडकर हमारे सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में कुछ इस तरह उभरे हैं कि वो महात्मा गांधी से भी महत्वपूर्ण नजर आते हैं. इसका एक कारण ये हो सकता है कि जहां गांधी ने अहिंसक तरीकों से सिर्फ राजनीतिक आजादी और समानता की बात कही वहीं अंबंडकर शुरू से सामाजिक-आर्थिक समानता की बात कर रहे थे. देश को १९४७ में आजादी मिल गई और संविधान ने हम सब को एक व्यक्ति-एक मत के माध्यम से राजनीतिक समानता भी दे दी. पिछले सत्तर साल में राजनीतिक समानता का काम काफी हद तक पूरा भी हो चुका है लेकिन समाजिक और आर्थिक स्तर पर समानता और आजादी मिलना अभी बाकी है. भारतीय संविधान के प्रमुख लक्ष्यों में जिस सामाजिक और आर्थिक समानता, न्याय और स्वतंत्रता की बात कही गई है उस पर कुछ काम ही हो पाया है और बहुत तरीकों से काम किया जाना बाकी है. ऐसे ही दौर में डॉ अंबेडकर एक प्रकाश स्तंभ बनकर उभरते हैं जो हम सबको रास्ता दिखाते हैं. डॉ अंबेडकर स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी इस बात के समर्थक थे कि राजनीतिक आजादी के कोई मायने नहीं होंगे अगर सामाजिक-आर्थिक स्तर पर शोषण जारी रहा और हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. 
डॉ अंबेडकर ने एक ऐसे भविष्य की कल्पना की थी जो पूरी तरीके से परिवर्तनकारी होगा. भारत को अगर सही अर्थों में एक प्रगतिशील, आधुनिक और विकसित समाज और राज्य बनने की तरफ तेजी से बढ़ना है तो अंबेडकर के विचारों को मूर्त रूप देने के लिए अथक प्रयास करने होंगे. 

पहचान से संसाधन की ओर

भारत में सामाजिक-राजनीतिक विमर्श तेजी से करवट ले रहा है. पहचान की राजनीति का एक दौर अब खत्म होने को है. आज हर भारतीय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक मिला हुआ है. हमें पिछले कुछ दशकों में देखा की देश में दलित राजनीति ने अपना प्रमुख स्थान बनाया. आज हर राजनीतिक दल उन्हें संगठन और सरकार में जगह देने के लिए आतुर है. लेकिन सिर्फ इससे सामाजिक-रानीतिक न्याय सुनिश्चित नहीं हो जाता. इसलिए हमें समय के इशारे को समझते हुए संसाधनों की राजनीति के नए दौर में प्रवेश करना होगा जहां संसाधनों और मूल्यों का सभी में समान वितरण संभव हो सके. ऐसे में यहां सवाल ये उठता है कि क्या सिर्फ सरकारी नौकरी देकर संसाधनों का पुनरवितरण सुनिश्चित किया जा सकता है. ऐसा संभव नहीं लगता क्योंकि सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है और पिछले कुछ सालों में करोड़ों की संख्या में वंचित समाज के लोगों अच्छी शिक्षा ग्रहण की है. सभी को सरकारी नौकरियों में नहीं लगाया जा सकता. ऐसे समय में उद्यमिता एक बड़ा समाधान बनकर सामने आती है जिसमें वंचित समाज के युवाओं को नौकरी मांगने वाले की जगह नौकरी देने वाला बनाने पर जोर है. दलित चैंबर औफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री इस दिशा में एक अच्छी पहल है. लेकिन इन सबसे पहले बैकलॉग की नौकरियों को केंद्रीय और राज्य के स्तर पर भर दिया जाना चाहिए.
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार समाज के बीच की दूरी को खत्म करने और सामाजिक और आर्थिक सुनिश्चित करने के सभी प्रयास कर रही है. सरकार एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास कर रही है जिसमें दलित उद्यमिता को बढ़ावा दिया जा सके. स्टैंड अप, दलित वेंचर कैपिटलिस्ट फंड और मुद्रा कुछ ऐसी स्कीमें हैं जहां समाज के कमजोर तबके को आसानी से लोन दिए जाने की व्यवस्था की गई है.  एक तरफ जहां सरकार इस तरह की भविष्य की स्कीमें बनाकर सामाजिक समानता और न्याय सुनिश्चित कर समरसता का वातावरण बनाने की कोशिश कर रही है वहीं कुछ ऐसी ताकतें हैं जो समाज के कुछ वर्गों में दूरी (सेंस ऑफ अदरनेस) बनाने की कोशिश में लगे हैं.
ऐसे कठिन समय में डॉ अंबेडकर और भी प्रासंगिक हो जाते हैं जिन्होंने हमेशा देश और समाज को जोड़ने का ही प्रयास किया.

जाति-विहीन समाज

अंबेडकर ने एक जाति विहान समाज की कल्पना की थी. आज के दौर में हमें अगर इस दिशा में आगे बढ़ना है तो जाति से जुड़े हुए सवालों का एक समयबद्ध तरीके से समाधान निकालना ही होगा अगर हमें समग्र रूप से अपने समाज में एक गुणात्मक बदलाव आने वाले समय में देखना है. हमारे विकास की गुणवत्ता समाज की एकता पर काफी हद तक निर्भर करती है जो आज बहुत कमजोर है और जिसका कुछ लोग फायदा उठाकर देश को पीछे धकेलना चाहते हैं.  
राष्ट्रीय एकता
अंबेडकर ने देश और समाज को एक और मजबूत बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए. उनकी सफलता इसमें है कि उन्होने सबसे पहले समस्या को पहचाना और उस पर पुरजोर चोट करने की कोशिश की. देश और समाज की एकता बनाए रखने के लिए उन्होंने पहले आजादी के आंदोलन के दौरान और फिर संविधान निर्माता के रूप में अपना योगदान दिया. उनका साफ तौर पर मानना था कि भारतीय सभ्यता के विकास में जाति सबसी बड़ी बाधा है जिसे दूर किया जाना चाहिए.
अंबेडकर ने सामाजिक असमानता और छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाई. वो उन छह करोड़ लोगों की आवाज बन गए जो समाज के सबसे निचले पायेदान पर आते थे और किसी भी तरीके से मुख्यधारा में शामिल नहीं थे. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों से आजादी का अभियान नहीं था बल्कि वो एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण की लड़ाई थी जिसमें दासता के साथ-साथ असमानता और अन्याय का कोई स्थान नहीं था. अंबेडकर ने जो संघर्ष किया वो आंतरिक शोषण और दासता के खिलाफ था जिसके बिना आजादी अधूरी थी. भारतीय समाज के इस आंतरिक सशक्तीकरण से भारतीय राष्ट्रवाद का सामाजिक आधार और अधिक मजबूत और व्यापक हुआ. अंबेडकर के द्वारा मिली राजनीतिक चुनौती ने कांग्रेस को मजबूर किया कि उसने अस्पृश्यता की समस्या को महत्व दिया और संविधान के माध्यम बहुत से प्रावधान बनाकर उन्हें दूर करने की कोशिश की. 

सामाजिक-राजनीतिक एकता

अंबेडकर ने समाज के निचले तबके पर पड़ी तिरस्कृत जातियों के सवाल को उठाया और उन्हें एक नई राजनीतिक ऊंचाई देते हुए लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के साथ जोड़ दिया. अंबेडकर ने राजनीति से पहले समाज को महत्व दिया और दोनों को जोड़ते हुए एक नया विमर्श खड़ा किया जो पहले नहीं देखा गया था.  गांधी ने भी ऐसे प्रयोग करने की कोशिश की थी लेकिन उनमें आक्रामकता की कमी दिखती थी. अंबेडकर के अनुसार, सामाजिक एकता के बिना राजनीतिक एकता लाना संभव नहीं है. अगर कुछ समय के लिए ऐसा हो भी जाता है तो वो उस छोटे पौधे की तरह होगा जो किसी तेज हवा में उड़ सकता है. राजनीतिक एकता के साथ भारत सिर्फ एक राज्य के रूप में रह सकता है. लेकिन राज्य और राष्ट्र में फर्क होता है. ऐसा राज्य अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ता रहेगा और उसके बचने की संभावना कम होती है.
अंबेडकर की आस्था
अंबेडकर की भारत के पुरातन परम्पराओं और आध्यात्म में पूरी श्रद्धा थी. वो भारतीय दर्शन और वांगमय के आध्यात्मिक पहलू से सहमत थे लेकिन कर्मकांडी पहलुओं से उन्हें सख्त गुरेज था. उन्हें जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कही जो पिछले कुछ सौ सालों में विकसित हुई थी ना कि धर्म व्यवस्था को जो हजारों साल से इस सभ्यतागत विमर्श का हिस्सा थी.  उन्होंने भारत में धर्म के महत्व को समझा था इसीलिए जब उन्हें धर्म परिवर्तन करना था तो किसी अब्राहमिक पंथ की जगह उन्हें भारत से उपजे बौद्ध धर्म को अपनाना ही उचित समझा.
अंबेडकर का मानना था कि लोकतंत्र के ऐतिहासिक प्रमाण बारत में बुद्ध से भी पहले मिलते हैं. उनका कहना था कि बौद्ध भिक्षु संघ की संरचना में संघ का तात्पर्य संसदीय प्रणाली से ही था जहां समूह में चर्चा होती थी और मिलकर निर्णय लिये जाते थे. उनका कहना था कि हिंदुओं ने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का विचार कहीं बाहर से उधार नहीं लिया है. ये सिद्धांत भारतीय धर्म-दर्शन पूरी तरीके से मौजदू हैं. अपनी पुस्तक रिडिल्स इन हिंदुइज्म में उनका मानना है कि हिंदू धर्म में सामाजिक लोकतंत्र बनने के आध्यात्मिक बिंदु विद्यमान हैं.

संविधान निर्माता के रूप में

संविधान निर्माता के रूप में भी अंबडकर ने भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता-अखंडता को और मजबूत बनाने की कोशिश की. उन्होंने कश्मीर में धारा ३७० का विरोध किया जब पंडित नेहरू ने शेख अब्दुल्लाह की बात सुनते हुए उसे पारित करवा दिया. अंबेडकर ने शेख अब्दुल्लाह को लिखा था ऐसा संभव नहीं कि भारत सरकार आपको हर तरह की मदद दे लेकिन उसके पास कश्मीर के संबंध में सीमित शक्तियां ही हों. ऐसे किसी भी प्रस्ताव का समर्थन करना देशद्रोह होगा और मैं ऐसा नहीं कर सकता.
क्षेत्रीय, भाषाई और साम्प्रादायिक दिक्कतों से ऊपर उठते हुए अंबेडकर ने सच्चे लोकतंत्रवादी की तरह समान नागरिक संहिता की बात कहते हुए लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया. समान नागरिक संहिता पर उनके विचार नेहरू से बहुत अलग थे जिन्होंने सिद्धांत में तो इसे स्वीकार किया था लेकिन उसे संसद में पारित नहीं करवा पाए थे. वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर ने संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द बंधुत्व पर बहुत जोर दिया जिसे सभी भारतियों में भाईचारा की भावना विकसित की जा  सके.
डॉ अंबेडकर ने अपने पहले भाषण में ही एक मजबूत केंद्र सरकार बनाने की बात कही थी जिससे भारत की स्वतंत्रता में बाधा ना पहुंचे जैसा कि देश के विभाजन और दूसरे अन्य मौकों पर पहले हो चुका था. उनकी इस बात को सदन ने माना था और बाद में ये बिंदु संविधान के आपातकालीन प्रावधान के माध्यम से शामिल किए गए थे. आज सामान्य समय में राज्यों के पास कापी शक्तियां हैं लेकिन देश पर संकट होने की स्थिति में केंद्र सरकार के पास बहुत सी शक्तियां आ जाती हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि अंबेडकर ने अन्यायपूर्ण सामाजिक स्तरीकरण का विरोध किया लेकिन ऐसा नहीं कह सकते कि वो भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ थे. अंबेडकर कहते हैं, मैं जानता हूं कि मेरी स्थिति को इस देश में सही ढंग से नहीं समझा गया. जब भी मेरे और मेरे देश के हितों के बीच टकराव होगा तो मेरे लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होंगे. मैंने कभी व्यक्तिगत लाभ के लिए काम नही किया लेकिन देश की बात आने पर पीछे भी नहीं हटा.
अंबेडकर देश और समाज की एकता और अखंडता के रक्षक थे. वो एक ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होने समाज के सबसे कमजोर, वंचित तबके की समस्याओं को समझा था और उन्हें मुख्यधारा में लाने का काम किया था. उन्होने भारतीय राष्ट्रवाद का सामाजिक आधार बढ़ाया जिससे पहले तो अधिक से अधिक लोग स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो सके और बाद में देश के विकास में आगे बढ़ सके. आज जब देश में समावेशी राजनीति का विमर्श जोरों पर है तो अंबेडकर को समझना और भी प्रासंगिक हो जाता है. 

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