भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण
दिवस पर प्रवक्ताडॉटकॉम पर प्रकाशित मेरा लेख
श्रमिकों की समस्याओं के समाधान के लिए
उन्होंने लगातार आन्दोलन किया इसी कारण सन 1934 में वे बम्बई
म्युनिसिपल कर्मचारी संघ के अध्यक्ष चुने गए थे. 15 सितम्बर 1938 को
जब बम्बई विधानसभा में मजदूरों द्वारा हड़ताल करने से रोकने के लिए इंडस्ट्रियल
डिस्प्यूट बिल लाया गया तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया. उन्होंने उस समय के
मजदूर संगठनों के साथ मिलकर इस बिल के विरोध में आन्दोलन चलाया और अपने भाषण में
मजदूर संगठनों से हड़ताल पर जाने की अपील की. उसके बाद उन्हें सफलता भी मिली और यह
श्रमिक विरोधी बिल रद्द हो गया.
मुख्य रूप से हम बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर
को भारत के संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं लेकिन उससे पहले वो वॉयसरॉय की
परिषद के श्रम सदस्य के रूप में काम कर चुके थे जिसे हम श्रम मंत्री भी कह सकते
हैं. डॉ. अम्बेडकर ने श्रम मंत्री के रूप में 1942-1946 तक अपना
महत्वपूर्ण योगदान दिया. इस सीमित कालखंड में बाबा साहेब ने दलित एवं श्रमिक वर्ग
के बंधुओं के हित में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. उन्होंने खुद भी
मजदूर संगठनों के बीच काम किया और उनकी समस्याओं को करीब से समझा.
शुरुआती वर्ष
श्रमिक वर्ग के अधिकारों तथा उनकी समस्याओं के
प्रति डॉ. अम्बेडकर ना केवल जागरूक रहे बल्कि वे इन विषयों पर सतत संघर्षशील भी
रहे. यह बात अलग है कि समय-समय पर परिस्थितियों के अनुरूप उनके विचारों में
परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता है.
1920 के दशक में भारत में साम्यवादी संगठनों का
प्रभाव बढ़ा और 1924, 1925, 1928, 1929 के वर्षों में कपड़ा उद्योग से जुड़े
मजदूर संगठनों ने जब हड़तालें कीं तब डॉ. अम्बेडकर ने अपने पत्रों – बहिष्कृत
भारत और जनता – के माध्यम से श्रमिक वर्गों को इन हड़तालों से
दूरी बनाकर रखने को कहा. जिसके परिणामस्वरूप साम्यवादियों ने बाबा साहेब को ‘श्रमिक
वर्ग का शत्रु’ घोषित कर आलोचना की. डॉ. अम्बेडकर का स्पष्ट
मानना था कि श्रमिक वर्ग की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है. ऐसी स्थिति
में उन्हें हड़ताल पर नहीं जाना चाहिए.

रेलवे मजदूरों के एक सम्मेलन में 1938
में अध्यक्षीय भाषण करते हुए डॉ अंबेडकर ने कहा कि यह बात सच है कि अभी तक हम अपनी
सामाजिक समस्याओं को लेकर ही संघर्ष कर रहे थे, किन्तु अब समय आ
गया है जब हम अपनी आर्थिक समस्याओं को लेकर संघर्ष करें. उन्होंने अछूत मजदूरों की
समस्याएं भी जोर-शोर से उठाईं.
बाबा साहेब की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं
कल्याण के प्रति चिंता उन शब्दों में परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9
सितम्बर 1943 को लेबर परिषद के उद्घाटन के समय औद्योगिकीकरण
विषय पर बोलते हुए कही थी. उन्होंने कहा था कि पूंजीवादी संसदीय प्रजातांत्रिक
व्यवस्था में दो बातें जरूर होती हैं. पहली, जो लोग काम करते
हैं उन्हें गरीबी में रहना
पड़ता है और दूसरी जो काम नहीं करते उनके पास अथाह दौलत
जमा हो जाती है. एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता. जब तक मजदूरों को
रोटी, कपड़ा और मकान और निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रूप से जब तक सम्मान
के साथ अपना जीवन-यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती.
हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वासन मिलना
जरूरी है.
बाबा साहेब का जोर इस बात पर हमेशा रहा कि श्रम
का महत्व बढ़े, उसका मूल्य बढ़े. उन्होंने दिसम्बर, 1945
में श्रम आयुक्तों की एक विभागीय बैठक बम्बई सचिवालय में आयोजित की थी. इस बैठक
में दिया गया उनका उद्घाटन भाषण अदभुत है. उन्होंने कहा कि औद्योगिक झगड़ों को
निपटाने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है- समुचित संगठन, कानून
में आवश्यक सुधार, श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण.
मार्क्स का सिद्धांत भारत-सम्मत नहीं
डॉ अंबेडकर का साफ तौर पर मानना था कि जिस तरह
से कार्ल मार्क्स ने मालिक तथा मजदूर के नाम से दो वर्गों में समाज को विभाजित
किया है, भारतीय परिस्थितियों में यह विभाजन नितांत गलत है. इस तरह का स्पष्ट
विभाजन भारत में नहीं हो सकता. सभी मजदूरों को मिलाकर एक वर्ग समूह बन जाता है
परन्तु भारत में ऐसा करना सम्भव नहीं है. भारत की सामाजिक संरचना अलग है. मजदूरों
के अन्दर सामूहिक एकता लाने के लिए उन्हें यह समझना होगा कि उनके आपस की जो
सामाजिक दूरियां और अशुद्ध भेदभाव हैं वे दूर होने चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि
मैंने किसी भी श्रमिक नेता को इस सामाजिक भेदभाव के विरोध में बोलते हुए नहीं
सुना. साम्यवादी श्रमिक संगठनों के बारे में वे कहते हैं, ‘मुझे यह कहने
में कोई संकोच नहीं है कि ये एक दिग्भ्रमित लोगों का समूह है और मैं एक कदम और आगे
जाकर यह कहना चाहता हूं कि इन लोगों ने श्रमिकों का जितना अधिक सर्वनाश किया है
उतना किसी ने नहीं किया।’
श्रमिकों को राजनीतिक शक्ति
बाबा साहेब ने बार-बार यह कहा कि श्रमिकों की
राजनीतिक शक्ति भी होनी चाहिए. उन्होंने इसके लिए प्रयास भी किया ताकि श्रमिकों की
राजनीतिक शक्ति का निर्माण किया जा सके. उन्होंने स्वतंत्र श्रमिक पक्ष
(इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी) की स्थापना भी की. जीआईपी रेलवे के अछूत कामगारों के
सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण करते हुए उन्होंने कहा कि श्रमिक संघों को अपने हितों
की रक्षा के लिए राजनीति में अवश्य ही प्रवेश करना चाहिए. इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी
के निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य थे – राज्य पोषित औद्योगिकरण को बढ़ावा मिले,
जागीरदारी
प्रथा की समाप्ति हो, उद्योगों/ कारखानों में अच्छे पदों पर दलितों
को भी रखा जाए.
मजदूरों की सुरक्षा हेतु नीति एवं योजनाएं
डॉ. अम्बेडकर के विशेष प्रयासों के कारण ही
श्रमिक, मालिक और सरकार का त्रिपक्षीय संगठन का सम्मेलन आयोजित हुआ. इस
सम्मेलन के बाद मजदूर-श्रमिक असहाय नहीं रहे. सरकार को उनके समर्थन एवं सुरक्षा
में खड़ा होना पड़ा एवं सरकार को उनके हितों के संरक्षण में कानून बनाने पड़े. श्रम
मंत्री के रूप में उन्होंने 9 दिसम्बर, 1943 को धनबाद के
कोयला खदान मजदूरों की कॉलोनी का दौरा किया. वहां उन्होंने कोयला खदान मजदूरों की
दयनीय दशा को बहुत करीब से देखा था. इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप ही 7
अगस्त, 1945 को प्रथम त्रिपक्षीय सम्मेलन का आयोजन किया
गया. इस सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने ऐतिहासिक वक्तव्य दिया. उन्होंने साफ कहा कि
मजदूरों और मालिकों के उद्देश्य समान हैं. इस सम्मेलन के भी मुख्य रूप से निम्न
उद्देश्य हैं- मजदूरों के लिए कानून बनाना, औद्योगिक
विवादों को निपटाने के लिए एक पद्धति का निर्माण करना, पूरे भारत के
मजदूर-मालिक सम्बन्धों की चर्चा करना.
बाबा साहेब चाहते थे कि सरकार की राष्ट्रीय
श्रम नीति निश्चित होनी चाहिए और उसे बनाने में मजदूरों को बराबर का सहयोगी होना
चाहिए. सरकार की श्रम नीति का व्यापक स्वरूप बनाने के लिए उनके श्रम मंत्री के
कार्यकाल में कुल चार त्रिपक्षीय सम्मेलन आयोजित किए गए. इन सम्मेलनों में
(a) मजदूरों के न्यूनतम वेतन की चर्चा हुई.
(b) कम्पनी अधिनियम के आधार पर काम के घण्टे तय किए
गए.
(c) मजदूरों के लिए भविष्य निधि की चर्चा हुई.
(d) अधिक समय काम के बदले अलग से मेहनताना अर्थात
ओवर टाइम की व्यवस्था हुई.
(e) सस्ते मूल्य के अनाज की व्यवस्था.
(f) कम्पनी के अंदर सस्ते दर के जलपान गृह एवं
अस्पताल की व्यवस्था.
(g) विश्राम स्थल की सुविधाएं उपलब्ध कराने पर
चर्चा.
बाबा साहेब ने
अपने श्रम मंत्री के कार्यकाल के दौरान श्रमिकों के हित में लगभग 25
कानूनों का निर्माण किया और उनका क्रियान्वयन करवाया. सातवें भारतीय श्रम सम्मेलन
में 27 नवम्बर 1942 को डॉ. अम्बेडकर ने आठ घण्टे काम का
कानून रखा था. इस कानून को बनाते समय उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही थीं.
उन्होंने कहा था कि काम के घण्टे घटाने का मतलब है रोजगार बढ़ना. इस कानून के मसौदे
को रखते हुए उन्होंने जोर देकर कहा था कि कार्य अवधि 12 से 8
घण्टे किए जाते समय किसी भी स्थिति में वेतन कम नहीं किया जाना चाहिए.
महिलाओं के प्रति डॉ. अम्बेडकर का दृष्टिकोण उस
समय के कई राष्ट्रीय नेताओं से अधिक व्यापक था. श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने
महिला मजदूरों के हितों को संरक्षित करने के लिए भी कानून बनाए. ये कानून ही बाद
में चलकर बिना किसी लैंगिक भेदभाव के समान काम के लिए समान वेतन सम्बन्धी कानून का
आधार बने. उन्होंने खदान मातृत्व लाभ कानून, महिला कल्याण
कोष, महिला एवं बाल श्रमिक संरक्षण कानून, महिला मजदूरों
के लिए मातृत्व लाभ एवं मातृत्व अवकाश कानून के साथ-साथ कोयला खदान में महिला
मजदूरों से काम न कराने सम्बन्धी कानून बनाए.
मजदूरी के एक अन्य दूसरे पक्ष अर्थात ग्रामीण
मजदूरों के सम्बन्ध में भी डॉ. अम्बेडकर का दृष्टिकोण काफी व्यापक था। वे यह अच्छी
तरह जानते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां के श्रमिकों का अधिकांश
हिस्सा खेतिहर मजदूर के रुप में कार्यरत है. खेतिहर मजदूरों के शोषण से वे
भलीभांति परिचित थे इसलिए उन्होंने कृषि क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के लिए भी कई
कानून बनाए. वे कृषि मजदूरों के हितों के संरक्षण के लिए भूमि सुधारों को भी जरूरी
शर्त मानते थे. इस मामले में वे राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे इसीलिए उन्होंने भूमि
सुधारों और आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप का जोरदार ढंग से समर्थन
किया. संविधान सभा में संविधान के बुनियादी अधिकारों में जोड़ने के लिए उन्होंने जो
बिन्दु सुझाए थे उनमें अन्य बातों के अलावा जो तीन विषय शामिल थे, वे
निम्नलिखित हैं-
● प्रमुख केन्द्रीय उद्योग सरकारी क्षेत्र में
सरकार द्वारा संचालित होने चाहिए.
● बुनियादी प्रमुख उद्योग ( गैर रणनीतिक) भी
सरकार द्वारा या उसके द्वारा नियंत्रित निगमों द्वारा संचालित होने चाहिये.
उन्होंने कृषि को राजकीय उद्योग की मान्यता
देने की बात कही. उन्होंने कहा कि कृषि उद्योग को संचालित करने के लिए सबसे पहले
सरकार सारी भूमि का अधिग्रहण करे फिर समुचित आकार में उन जमीनों को गांव के लोगों
के बीच बांट दे. इन जमीनों पर परिवारों के समूहों द्वारा सहकारी खेती करने का
सुझाव दिया.
बाबा साहेब के प्रयासों के कारण ही मुख्य श्रम
आयुक्त, प्रोविंशियल श्रम आयुक्त, श्रम निरीक्षक जैसे सरकारी पद सृजित
किये गए. ये अधिकारी श्रमिकों के हितों के संरक्षण का काम करते थे और श्रमिक उनके
पास अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जाते थे.
इस तरह श्रम मंत्री रहते हुए डॉ अंबेडकर ने
अपनी सूझ-बूझ और अनुभव के आधार पर ऐसे कई कदम उठाए जिनके द्वारा कई श्रम कानून
अस्तित्व में आए और प्रभावपूर्ण ढंग से क्रियान्वयन हो सका. वहीं डॉ अंबेडकर ने
ऐसी कई पहले कीं जो आने वाले समय में श्रमिक कल्याण के क्षेत्र में मार्गदर्शक
बनीं.
बहुत अच्छा है
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