Monday 26 November 2018

क्या आंबेडकर राष्ट्रवाद के खिलाफ थे?

डॉ भीमराव अंबेडकर और राष्ट्रवाद पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

भारत रत्न डॉ. भीम राव आंबेडकर आज के दौर में भारत के सबसे महान नेता, विचार और सामाजिक दार्शनिक के रूप में उभर कर आए हैं। उनके जन्मदिवस की 125 वर्षगांठ उनके जन्मशताब्दी वर्ष से अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाई गई। एक बड़ी पत्रिका ने उन्हें आधुनिक भारत का महानतम नेता बताया। इस तरह से कहा जा सकता है कि आंबेडकर के विचार वर्तमान दौर के विमर्श में और अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं।
1947 से पहले स्वतंत्रता ही देश का मुख्य स्वर था और साथ में कई अलग-अलग स्वर भी थे। सबसे प्रभावशाली स्वर कांग्रेस का था जो अंग्रेज उपनिवेशवादियों से देश को आजाद कराना चाहते थे। एक स्वर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी था जो तब तक बहुत कमजोर था और भारत के पुनर्निमाण की बात कर रहा था। उनका मानना था कि भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को मजबूत करके ही देश का पुनरुद्धार किया जा सकता है।
इसी दौर में आंबेडकर भी एक मजबूत स्वर के रूप में उभरे। उन्होंने सामाजिक असमानता और छुआछुत से आजादी की बात कही। इसे राष्ट्रवाद का सबाल्टर्न रूप कह सकते हैं जिसमें नीचे से आवाजें उठती हैं और जो समाज के सबसे कमजोर, वंचित और शोषित वर्ग की बात करता है जो औपनिवेशक भारत के सामाजिक जीवन में कहीं हिस्सा नहीं ले रहा था। बाबा साहब आंबेडकर इन 6 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि बन गए। समाज के इस वर्ग की मुक्ति के बिना भारत का स्वतंत्रता आंदोलन पूर्ण नहीं था। 20वीं सदी के भारत की आजादी का आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों से राजनीतिक शक्ति हासिल करना नहीं था बल्कि भारत को रूढ़िवादी परंपराओं और संस्थाओं से मुक्ति दिलाकर एक आधुनिक राष्ट्र बनाना भी था।
आंबेडकर के प्रयासों के कारण ही ये विचार विकसित हुआ कि हमें आंतरिक और बाहरी गुलामी से स्वतंत्रता पानी है। इसके परिणामस्वरूप हमारे राष्ट्रवादी आंदोलन को आंतरिक मजबूत से किया और उसका सामाजिक आधार फैलाया।
आंबेडकर राष्टवाद के खिलाफ नहीं थे लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रवाद के खिलाफ थे जो भारत को अंग्रजों से आजाद करने की बात तो करता था लेकिन ब्राह्मणवादी शोषण पर चुप था जिसके कारण करोड़ों लोग सैकड़ों सालों से शोषण का शिकार थे। आंबेडकर के दबाव में ही कांग्रेस ने वंचित वर्ग की समस्याओं का राजनीतिक स्तर पर संज्ञान लिया जिससे अधिक से अधिक लोग आजादी के आंदोलन से जुड़ने लगे।

शुरुआत से ही आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति उच्चवर्ग (ऊंची जाति) से प्रभावित थी जिसमें उसी वर्ग के लोगों के हित की बात की जाती थी। इसलिए जब इन राष्ट्रवादीनेताओं ने राष्ट्रीय हितों की बात कही तो बस अपने वर्गीय हितों की बात कही। इस प्रवृत्ति को पंडित नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इन शब्दों में देखा जा सकता है, दर्शन और धर्म, इतिहास और परंपरा, सामाजिक तानेबाने और रीतिरिवाज के मिश्रण से ही भारतीय जनजीवन लगभग सभी हिस्से बनकर तैयार होते हैं जिसे ब्राह्मणवाद या हिंदू कहा जा सकता है और यही भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है।
जब बड़ी संख्या में लोग स्वतंत्रता आंदोलन में निचले स्तर पर शामिल होने लगे और इसका आधार बढ़ने लगा तब भी इसके चरित्र में ज्यादा बदलाव नहीं आया जिसका स्पष्ट उदाहरण इसके नेतृत्व के रूप में देखा जा सकता है जहां कोई बहुत अधिक सामाजिक विविधता नहीं मिलती। इसी वजह से देश में समानानंतर रूप से कई सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का उदय हुआ। 20वीं सदी में आंबेडकर का भारत के सामाजिक-राजनीतिक पटल पर उदय इसी का नतीजा था। आंबेडकर के उदय ने कांग्रेस के दलितों के प्रति समझ और चिंता की कलई खोलकर रख दी। कांग्रेस के नेतृत्व के समय भारतीय समाज में उस समय व्याप्त विरोधाभासों पर बोलने में संकोच करते थे। इसी संकोच और निष्क्रियता के कारण आंबेडकर ने कांग्रेस के उस दावे का विरोध किया जिसमें वो कहती थी कि वो पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करती थी।
कांग्रेस द्वारा समाज के वंचित वर्ग की समस्याओं को ठीक तरीके से ना समझ पाने और उनको नेतृत्व में हिस्सा ना देने के कारण एक सबाल्टर्न राष्ट्रवाद खड़ा हुआ जिसका नेतृत्व आंबेडकर कर रहे थे। आंबेडकर ने सामजिक सोपान के निचले पायदान के लोगों को साथ लिया और जाति के सवाल को लोकतंत्र और राष्ट्रवाद से जोड़कर राजनीतिक ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। यहां कहा जा सकता है कि कुछ ऐसा ही प्रयास गांधी जी भी कर रहे थे लेकिन इन विषयों को लेकर उनकी समझ में अंतर था।
राष्ट्रवाद का विचार सामाजिक समावेशीकरण का एक बड़ा माध्यम है जो जाति, रंगभेद से ऊपर उठकर समरसता की बात करता है। हर व्यक्ति को एक ऐसी व्यवस्था चाहिए जिसमें सोच सके, अपने जीवन-मूल्यों के साथ आगे बढ़ सके और अपने आप को स्वतंत्र महसूस कर सके। आज के वर्तमान दौर में राष्ट्र ही ऐसी संस्था है जो ये लक्ष्य पूरा कर पाती है। हमें पंक्ति में अंतिम खड़ी महिला के लिए एक न्यायपूर्ण व्यवस्था तैयार करनी है तो आंबेडकर के विचारों की तरफ दृष्टिपात करना होगा जो सामाजिक-आर्थिक जीवन में समानता के साथ राजनीतिक समानता की बात करते थे। ऐसी व्यवस्था आज की तारीख में राष्ट्र-राज्य नामक संस्था में ही संभव है।
इसमें कोई संशय नहीं है कि आंबेडकर ने भारत से सामाजिक स्तरीकरण के ढांचे का भारी विरोध किया लेकिन वह राष्ट्र के भाव के खिलाफ नहीं थे। वह एक ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने समाज के सबसे वंचित वर्ग की समस्याओं को समझा था और उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश की थी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आधार बढ़ाया। आज जब हमारा विमर्श समावेशी राजनीति के इर्द-गिर्द घूम रहा है तो आंबेडकर के विचार और भी प्रांसगिक हो जाते हैं।

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