Monday 17 December 2018

श्रमिक नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर

भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर प्रवक्ताडॉटकॉम पर प्रकाशित मेरा लेख

मुख्य रूप से हम बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को भारत के संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं लेकिन उससे पहले वो वॉयसरॉय की परिषद के श्रम सदस्य के रूप में काम कर चुके थे जिसे हम श्रम मंत्री भी कह सकते हैं. डॉ. अम्बेडकर ने श्रम मंत्री के रूप में 1942-1946 तक अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. इस सीमित कालखंड में बाबा साहेब ने दलित एवं श्रमिक वर्ग के बंधुओं के हित में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. उन्होंने खुद भी मजदूर संगठनों के बीच काम किया और उनकी समस्याओं को करीब से समझा.

शुरुआती वर्ष

श्रमिक वर्ग के अधिकारों तथा उनकी समस्याओं के प्रति डॉ. अम्बेडकर ना केवल जागरूक रहे बल्कि वे इन विषयों पर सतत संघर्षशील भी रहे. यह बात अलग है कि समय-समय पर परिस्थितियों के अनुरूप उनके विचारों में परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होता है.
1920 के दशक में भारत में साम्यवादी संगठनों का प्रभाव बढ़ा और 1924, 1925, 1928, 1929 के वर्षों में कपड़ा उद्योग से जुड़े मजदूर संगठनों ने जब हड़तालें कीं तब डॉ. अम्बेडकर ने अपने पत्रों बहिष्कृत भारत और जनता के माध्यम से श्रमिक वर्गों को इन हड़तालों से दूरी बनाकर रखने को कहा. जिसके परिणामस्वरूप साम्यवादियों ने बाबा साहेब को श्रमिक वर्ग का शत्रुघोषित कर आलोचना की. डॉ. अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि श्रमिक वर्ग की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति काफी दयनीय है. ऐसी स्थिति में उन्हें हड़ताल पर नहीं जाना चाहिए.
श्रमिकों की समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने लगातार आन्दोलन किया इसी कारण सन 1934 में वे बम्बई म्युनिसिपल कर्मचारी संघ के अध्यक्ष चुने गए थे. 15 सितम्बर 1938 को जब बम्बई विधानसभा में मजदूरों द्वारा हड़ताल करने से रोकने के लिए इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट बिल लाया गया तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया. उन्होंने उस समय के मजदूर संगठनों के साथ मिलकर इस बिल के विरोध में आन्दोलन चलाया और अपने भाषण में मजदूर संगठनों से हड़ताल पर जाने की अपील की. उसके बाद उन्हें सफलता भी मिली और यह श्रमिक विरोधी बिल रद्द हो गया.
रेलवे मजदूरों के एक सम्मेलन में 1938 में अध्यक्षीय भाषण करते हुए डॉ अंबेडकर ने कहा कि यह बात सच है कि अभी तक हम अपनी सामाजिक समस्याओं को लेकर ही संघर्ष कर रहे थे, किन्तु अब समय आ गया है जब हम अपनी आर्थिक समस्याओं को लेकर संघर्ष करें. उन्होंने अछूत मजदूरों की समस्याएं भी जोर-शोर से उठाईं.
बाबा साहेब की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिंता उन शब्दों में परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर 1943 को लेबर परिषद के उद्घाटन के समय औद्योगिकीकरण विषय पर बोलते हुए कही थी. उन्होंने कहा था कि पूंजीवादी संसदीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में दो बातें जरूर होती हैं. पहली, जो लोग काम करते हैं उन्हें गरीबी में रहना
पड़ता है और दूसरी जो काम नहीं करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है. एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता. जब तक मजदूरों को रोटी, कपड़ा और मकान और निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रूप से जब तक सम्मान के साथ अपना जीवन-यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती. हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वासन मिलना जरूरी है.
बाबा साहेब का जोर इस बात पर हमेशा रहा कि श्रम का महत्व बढ़े, उसका मूल्य बढ़े. उन्होंने दिसम्बर, 1945 में श्रम आयुक्तों की एक विभागीय बैठक बम्बई सचिवालय में आयोजित की थी. इस बैठक में दिया गया उनका उद्घाटन भाषण अदभुत है. उन्होंने कहा कि औद्योगिक झगड़ों को निपटाने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है- समुचित संगठन, कानून में आवश्यक सुधार, श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण.

Wednesday 5 December 2018

सामाजिक विज्ञान की भारतीय दृष्टि

डॉ श्रीप्रकाश सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक पॉलिटिक्स फॉर अ न्यू इंडिया: अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिव ` की पाञ्चजन्य में प्रकाशित मेरी समीक्षा

मुगलों और तुर्कों ने भारतीय मंदिर और शिक्षा के केंद्र नष्ट किए लेकिन अंग्रेजों ने इन केंद्रों के प्रति अनास्था उत्पन्न की. इसीलिए उन्होंने ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त थी. जिसमें पश्चिम से उपजा ज्ञान ही अंतिम सत्य नजर आता था. इस उपनिवेशवादी मानसिकता ने हमें उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी कुछ नया और मौलिक के संधान से दूर किया. आज आजादी के सत्तर साल बाद भी ऐसा लगता है कि हम हजारों सालों से अभिसिंचित भारतीय चिंतन परंपरा और सभ्यतागत विमर्श से कितने दूर हैं. हालांकि कुछ कोशिशें समय समय पर जरूर होती रही हैं.
विज्ञान से लेकर सामाजिक विज्ञान तक ऐसे कई हैं जिन्होंने अपने स्तर पर काफी काम किया. वैसे तो हर क्षेत्र महत्वपूर्ण है लेकिन एक बड़ा काम जहां करने की जरूरत है वो क्षेत्र है सामाजिक विज्ञान का. ऐसे कुछ लोग हुए भी हैं जिन्होंने विश्वविद्यालय व्यवस्था के अंदर और बाहर रहकर इतिहास, समाजशास्त्र और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि से काम किया. वासुदेव शरण अग्रवाल, कुबेरनाथ राय, गोविंद चंद पांडे, राम स्वरूप और सीताराम गोयल कुछ ऐसे ही नाम हैं जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में अच्छा काम किया है.
पिछले कुछ सौ सालों में पश्चिम में पुनर्जागरण के बाद हुए औद्योगिकीकरण और विज्ञान, तर्क, संस्कृति, कला के विकास के बीच से जो विमर्श निकला उसमें सवाल, संधान और समाधान के लिए एक ऐसा वातावरण बनाया कि दुनिया के उस हिस्से में मानव सभ्यता, विकास और वैभव की नई ऊंचाइयां छूने लगी. मानव जीवन में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को उन्होंने समझा और उसके पीछे तर्क का पूरा ताना-बाना गढ़ा गया. जैफरसन, लॉक, रूसो, मिल, बेंथम, बर्क, लास्की जैसे दर्जनों चिंतकों, विचारकों ने पोथियां लिख डालीं मानवाधिकारों, मानव जीवन के महत्व और अवसर की समानता पर. ये सब ज्ञान किताबों में नहीं रहा बल्कि पिछले 250 सालों में धरातल पर भी उतरा.
लेकिन इनका सारा ज्ञान -पोथी से लेकर धरातल तक - सिर्फ अपनी दुनिया के लिए ही था. बाकी दुनिया को तो ये सभ्य बनाने में लगे थे. रुडयार्ड किपलिंग की भाषा में वाइट मेन्स बर्डन’. इसलिए यहां का ज्ञान की महानता को क्यों स्वीकार करते. अब सोचने की बात यह है कि क्या भारत के पास ऐसी समझ नहीं थी. पड़ताल करने पर पता लगता है कि इन विषयों पर पश्चिम से बहुत पहले चिंतन भारत में हो चुका था. डॉ अंबेडकर ने खुद कहा था कि मैंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व फ्रांस की क्रांति से नहीं बल्कि महात्मा बुद्ध के दर्शन को पढ़कर जाना है. यानी कि एक चिंतन धारा थी जो बाहरी तत्वों द्वारा अवरुद्ध की गई. आक्रांताओं के आक्रमण, शोषण और आतंक में भारत जो विश्वगुरू था वो गुलाम हो गया. और, गुलाम लोग कभी संधानकर्ता नहीं होते, गुरू नहीं बनते.
इसलिए हमें प्रयास करने चाहिए कि भारतीय ज्ञान परंपरा फिर से विकसित हो. ऋषि और कृषि संस्कृति से निकला हमारा सभ्यतागत विमर्श फिर अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करे. इसे चाहे - भारतीय पक्ष, इंडिक वे, इंडो-सेंट्रिक एजूकेशन, भारतीयकरण, सैफर्नाइजेशन, भगवाकरण, इंडियनाइजेशन जो कहें लेकिन आज इसकी आवश्कता सबसे अधिक है. ये ज्ञानधारा किसी के समानांतर और विरोध में नहीं बल्कि विश्व ज्ञान कोष के सागर में भारत का अपना योगदान है जो मौजूदा समय के सवालों के भारतीय जवाब देने की कोशिश करेगा.
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रफेसर श्रीप्रकाश सिंह की नई किताब पॉलिटिक्स फॉर न्यू इंडिया : अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिवउसी दिशा में एक आगे लिया हुए कदम है. उनके द्वारा संपादित इस पुस्तक में भारतीय समाज और राजनीति के मौजूदा दौर के मुद्दों को भारतीय दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है. विश्वविद्यालय व्यवस्था में रहते हुए ऐसे विषयों पर काम करना कुछ वर्षों पहले तक थोड़ा कठिन था और सामाजिक विज्ञान में भारतीय ज्ञान परंपरा भी उतनी मजबूती से खड़ी दिखाई नहीं दी थी.

Tuesday 27 November 2018

प्रभावी बनती आयुष्मान भारत योजना

आयुष्मान भारत पर दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा लेख

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 23 सितंबर, 2018 को रांची से शुरू की गई आयुष्मान भारत राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना को अब दो महीने से अधिक हो चुके हैं. इस योजना को क्रियांवित कर रही राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी (एनएचए) के मुताबिक अबतक साढ़े तीन लाख से अधिक लोगों को इस योजना का लाभ मिल चुका है जिस पर 450 करोड़ रुपए का व्यय आया है. आयुष्मान भारत के नाम से प्रसिद्ध हो रही इस योजना में देश के सबसे गरीब और कमजोर तबके के 10 करोड़ से अधिक परिवारों यानी करीब पचास करोड़ लोगों को पांच लाख रुपए तक की द्वितीयक और तृतीयक स्तर की स्वास्थ्य सुविधाएं दी जाएंगी. इन स्वास्थ्य सुविधाओं के तहत कैशलेस आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है. लेकिन देखने की बात ये है कि क्या सचमुच ये दावे सही हो पाएंगे क्योंकि कई बार देखने में आता है कि स्थानीय स्तर पर लचर प्रशासनिक तंत्र, खर्च का बोझ, विभिन्न स्तर पर लीकेज और भ्रष्टाचार ऐसी योजनाओं को कमजोर कर देते हैं और लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंच पाता.  
आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत सभी सरकारी अस्पतालों और आवंटित किए गए निजी अस्पतालों में ऐसे करीब 1350 मेडिकल पैकेज दिए जा रहे हैं जिसके तहत फ्री में इलाजा कराया जा सकता है. इसमें सामान्य इलाज, दवा, सर्जरी, डे केयर और जांच आदि का खर्च शामिल हैं. कोई भी अस्पताल इलाज करने से मना नहीं कर सकता और इसमें पहले से चली आ रही बीमारियां भी शामिल हैं. योजना में महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को प्राथमिकता दी जाएगी. इसमें सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के तहत दिए गए शाश्वत स्वास्थ्य सुरक्षा के लक्ष्य को भी पूरा करने की कोशिश है.
ऐसा देखने में आता है कि स्वास्थ्य समस्याओं की वजह से आमदनी से ज्यादा खर्च होने लग जाता है जो एक बड़ी दिक्कत बन जाती है. 2011-12 में साढ़े पांच करोड़ भारतीय इसलिए गरीबी रेखा से नीचे आ गए क्योंकि परिवार में किसी सदस्य को बड़ी स्वास्थ्य समस्या हो गई थी. कई अध्ययनों में पता लगा है कि बीमारी बढ़ने से दवा, जांच और रखरखाव के खर्च में बढ़ोत्तरी हो जाती है जो विकासशील देशों के लोगों को गरीबी की तरफ खींचती है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक करीब 63 फीसदी लोगों को अपने इलाज का खर्च खुद देना पड़ता है क्योंकि वो किसी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना का हिस्सा नहीं होते. इसलिए भारत सरकार द्वारा लाई गई आयुष्मान योजना एक बेहतर कदम है जो ना सिर्फ गरीब आदमी को और गरीब बनाने से रोकेगा बल्कि एक स्वस्थ समाज, बेहतर मानव श्रम और रोजगार के नए अवसर भी पैदा करेगा.
संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है इसलिए केंद्र की तुलना में स्वास्थ्य सुविधा देने की राज्य की जिम्मेदारी अधिक है. लेकिन इस योजना में केंद्र सरकार ने ही स्वास्थ्य सुरक्षा देने का जिम्मा लिया है. इससे राज्य का आर्थिक बोझ कम होगा. इसलिए राज्यों को स्वास्थ्य सुविधा पर होने वाले खर्च को अधिक से अधिक अस्पताल और जांच की बुनियादी सुविधा आदि देने पर लगाना चाहिए. बिना राज्य सरकारों और जिला प्रशासन के सहयोग के इस योजना को सफल नही बनाया जा सकता.
अगर सामाजिक पिरामिड के सबसे निचले तबके के लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचानी हैं तो सिर्फ केंद्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा देने भर से बहुत कुछ नहीं होगा. राज्य सरकारों को भी कमर कसनी होगी. स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे को मजबूत करना होगा. पिछले दो महीने के आंकड़ों से पता लगता है कि आयुष्मान भारत के तहत 68 फीसदी लोगों ने निजी क्षेत्र के अस्पतालों में जाकर इलाज कराना ज्यादा ठीक समझा. राज्य सरकारों के साथ सांसदों, विधायकों और अन्य जागरुक लोगों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी कि स्थानीय स्तर तक स्वास्थ्य सुविधाएं ठीक तरीके से पहुंचे. एक ऐसी ही पहल हमीरपुर सांसद अनुराग ठाकुर ने सांसद मोबाइल स्वास्थ्य सेवा नाम से की है जिसके तहत जांच यंत्रों से लैस वैन खुद लोगों तक पंहुचती है और जांच करती है. इस वैन के माध्यम से 40 तरह की जांचें की जा सकती हैं. अब तक ये वैन 25 हजार से ज्यादा लोगों को लाभ पहुंचा चुकी है.

My take on the Aircel-Maxis case against Mr P Chidambaram I News X I


कितनी खतरनाक हो सकती है BSP के बाद की दलित राजनीति

दलित राजनीति पर लल्नटॉप में प्रकाशित मेरा लेख.


उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम इतने अप्रत्याशित होंगे, किसी ने सोचा नहीं था. हालांकि, ज्यादातर लोगों को ये समझ आ रहा था कि इस चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) बहुमत की सरकार बनाने नहीं जा रही है. साथ ही, अब ये भी साफ होता नजर आ रहा है कि बसपा एक हाशिए पर जाती हुई पार्टी है. इसके कई कारण हैं. हम इन कारणों की चर्चा तो करेंगे ही, साथ ही ये जानने की कोशिश भी करेंगे कि अगर बसपा हाशिए पर गई, तो किस तरह की दलित राजनीति उभर कर आएगी और उसका भारतीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा.
20वीं सदी के दूसरे दशक में डॉ. अंबेडकर ने कांग्रेस के अभिजनवादी नेतृत्व के खिलाफ हाशिए के लोगों को संगठित किया और उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा. ये दलित चेतना और सैकड़ों सालों की बंदिश से मुक्ति के लिए एक अच्छी शुरुआत थी. डॉ. अंबेडकर ने पार्टी निर्माण की बात कही, लेकिन उसे संगठित स्वरूप देने से पहले चले गए.
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का गठन हुआ, लेकिन वो कुछ बेहतर नहीं कर पाई. महाराष्ट्र और यूपी की कुछ पॉकेट्स के अलावा वो कहीं परिणाम नहीं ला पाई. दलित वोट कांग्रेस को ही पड़ते रहे. लेकिन, यहां दलित पैट्रन (मालिक) नहीं थे, बल्कि क्लाइंट मात्र थे, जहां वो खुद के लिए कुछ नहीं कर सकते थे, बल्कि कांग्रेसी नेतृत्व के मोहताज़ भर थे. इस 50 साल के कांग्रेसी पैट्रन-क्लाइंट संबंध में मात्र एक नेता दिखाई दिए, जो ऊपर तक आए. वो थे बाबू जगजीवन राम.
1960 के दशक के प्रथम लोकतांत्रिक उभार का लाभ पिछड़ी जातियों को मिला और कई नेता उभरकर सामने आए. ये नेता राज्यों के मुख्यमंत्री बने, राष्ट्रीय फलक पर चमके और सबसे बड़ी बात, उत्तर भारत की विधानसभाओं में इनकी संख्या एकदम से बढ़ गई. हरित क्रांति, कांग्रेस से निराशा और गांधी-नेहरू की विरासत का कमजोर होना इसके बड़े कारण थे. ये अलग राजनीतिक संस्कृति से निकले लोग थे, जिन्होंने कभी कांग्रेसी राजनीति नहीं की थी. इसीलिए इन्हें इंदिरा गांधी का जबरदस्त विरोध करने में कोई दिक्कत नहीं हुई. ये महज कोई संयोग नहीं था कि गुजरात के छात्र आंदोलन ने बिहार में आकर अपना स्वरूप प्राप्त किया.
इन सबके बीच दलित राजनीति का कोई नामलेवा नहीं था, जबकि उनके बीच सामाजिक सुधार आंदोलन की एक पूरी परंपरा काम कर रही थी, जो जातीय या राष्ट्रीय चेतना के लिए बहुत जरूरी होती है. ठक्कर बापा, महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ अंबेडकर ने जिस तरह दलित और वंचित समाज की वकालत की, वैसी पिछले 200 साल में किसी भी राष्ट्रीय नेता ने किसी भी समाज के लिए नहीं की.
रिपब्लिकन प्रयोग फेल हो चुका था, लेकिन जातीय चेतना, शिक्षा के प्रसार और आरक्षण के लाभ के कारण दलित समाज में एक बड़ा वर्ग खड़ा हुआ, जो अपनी पहचान तलाश कर रहा था. जिसे आजादी के बाद से ही कसमसाहट थी, जो अब बड़ा रूप ले रही थी. इतने लंबे समय तक दबी रही ये दलित जातीय चेतना 1970 और 1980 के दशक में दो रूपों में बाहर आती दिखी.
एक था दलित पैंथर और दूसरा कांशीराम के नेतृत्व वाला बहुजन प्रयोग. दोनों के ही तेवर आक्रामक थे, जो लाजिमी भी था. इतने लंबे समय से दबी चेतना दरअसल ऐसे ही बाहर आती है. अमेरिका के ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित दलित पैंथर कर्नाटक और महाराष्ट्र में सक्रिय हुआ, जिसकी आक्रामकता हिंसक भी हो जाती थी और कई बार लोकतांत्रिक मूल्यों की सीमाएं लांघ जाती थी. नामदेव धसाल और अर्जुन डांगले जैसे कई नेता और लेखक इसी आंदोलन की उपज थे, जिनके शब्द अगड़ी जातियों को नश्तर की तरह चुभते थे, लेकिन दलित जातियों के लिए मरहम का काम करते थे.
दूसरी तरफ कांशीराम ने दलित कर्मचारियों को संगठित करने का बड़ा काम किया और 1978 में बामसेफ का गठन किया, जो दलितों, बहुजनों और वंचित समाज के मुद्दों को उठाने वाला ट्रेड यूनियन था. 1982 में कांशीराम ने डीएस4 (दलित, शोषित संघर्ष समाज समिति) और 1984 में बसपा का गठन किया. बसपा ने 1980 के दशक से चुनाव लड़ना शुरू किया और 1993 में सबसे बड़े प्रदेश में सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बनी.
1995 में बसपा महासचिव मायावती, जो खुद दलित समाज से आती हैं, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. बसपा ने यूपी के साथ-साथ बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान की कुछ सीटों पर भी जीत हासिल की. पिछले बीस सालों में लोकसभा चुनावों में सभी सीटों पर चुनाव लड़कर करीब 5% मत हासिल किया. कांशीराम के लिए चुनाव लड़ना राजनीतिक-सांस्कृतिकरण का एक बड़ा माध्यम था, जिससे दलित जनता पब्लिक स्फियर का हिस्सा बनती थी.

Monday 26 November 2018

पाकिस्तान का सच सामने लाने की रणनीति बनाए भारत

पाकिस्तान और कुलभूषण जाधव पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

कुलभूषण जाधव के मामले में पाकिस्तान ने एक और विडियो जारी किया है, जिसमें जाधव पाकिस्तान के प्रशासन का धन्यवाद कर रहे हैं और भारतीय राजनयिक की आलोचना कर रहे हैं। ऐसा कैसे संभव है कि कुलभूषण जाधव जैसे व्यापारी जिसे पाकिस्तान ने मौत की सजा सुना दी हो वह उनकी आवभगत की तारीफ करे। ऐसा ही विडियो पाकिस्तान पहले भी जारी कर चुका है, जिसमें कुलभूषण अपने को भारतीय नौसेना का कमांडर बता रहे हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय ने विडियो जारी किये जाने की इस घटना को सामान्य बात बताया है। उनके अनुसार पाकिस्तान से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती। उसने दबाव बनाकर कुलभूषण से ऐसा करवाया होगा।
भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान लंबे समय से अपने यहां आतंकियों को पनाह और ट्रेनिंग देता आ रहा है। आतंकवाद का जो बीज पाकिस्तान ने सालों पहले बोया अब वह उसी पर भारी पड़ रहा है। आतंकवाद की इस दोधारी तलवार ने पाकिस्तान को बुरी तरह से खोखला करना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान अब अपने देश में फैल रहे आतंकवाद के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहा है। यह अपने आप में एक बेबुनियाद बात है। कुलभूषण जाधव का मामला भी इसी कोशिश का एक हिस्सा है, जिसमें पाकिस्तान अपनी गलतियों को छुपाने के लिए भारत पर पाकिस्तान को अस्थिर करने का आरोप लगा रहा है।
ऐसा लंबे समय से कहा जाता है कि पाकिस्तान को वहां की लोकतांत्रिक सरकार नहीं बल्कि अल्लाह, आर्मी और अमेरिका चलाते हैं। अपने आपको लगातार प्रांसगिक बनाए रखने के लिए आर्मी और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने एक स्थायी दुश्मन खोज रखा है जिसका नाम है: भारत। आर्मी और आईएसआई देश की कट्टरपंथी ताकतों को इस्लाम के नाम पर अपने साथ लाते हैं और उनके द्वारा आतंकी संगठन बनाकर भारत को अस्थिर करने की साजिश रचते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इन इस्लामिक संगठनों को अरब देशों से भी एक खास तरह का इस्लाम फैलाने के नाम पर पैसा मिला और ये काफी ताककवर हो गए। अब हालत यह हो गई है कि इन्होंने भी पाकिस्तान पर राज करने के मंसूबे पाल लिए हैं। इन्होंने अब अपने राजनीतिक संगठन भी बना लिए हैं और आने वाले समय में चुनाव में हिस्सा लेने का ऐलान कर दिया है। कुछ दिन पहले ही जमात-उत-दावा आतंकी संगठन के मुखिया हाफिज सईद ने भी अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने की घोषणा की है। ये आतंकी संगठन अपने आप में इतने ताकतवर हो गए हैं कि जब-तब अपनी ताकत का एहसास पाकिस्तान की सेना, आईएसआई और सरकार को कराते रहते हैं। कट्टरपंथी इस्लाम की जड़ें पाकिस्तान में काफी नीचे तक पहुंच गईं हैं, जिसकी वजह से इन संगठनों को काफी जन-समर्थन भी मिल जाता है। अब इन सभी समस्याओं के लिए पाकिस्तान कुलभूषण जाधव जैसे सामान्य लोगों को गिरफ्तार करके भारत को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास करता है।
यह सिर्फ कुलभूषण जाधव मामले की बात नहीं है, इससे पहले सरबजीत सिंह के मामले में हमने देखा कि कैसे उन्हें पाकिस्तान ने पहले प्रताड़ित किया और फिर मार दिया। इसी तरह के मामलों में कई भारतीयों को अफगानिस्तान, ईरान और भारत की सीमा से अगवा किया गया है और उन्हें भारतीय खुफिया एजेंसी का एजेंट करार दे दिया गया और उन पर आतंकी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाकर मौत की सजा सुना दी गई है। इनमें से किसी भी मामले की चार्जशीट पेश नहीं हुई और सारी कार्यवाही सैन्य अदालत में होती है जबकि इन लोगों के भारतीय सेना में होने के कोई प्रमाण पाकिस्तान के पास नहीं होते। हालांकि यह अतंरराष्ट्रीय समझौते का उल्लंघन है, जिसके तहत किसी आम नागरिक पर सैन्य अदालत में केस नहीं चला सकते। यहां पर बताते चलें कि कुलभूषण जाधव भी अब भारतीय नौसेना में काम नहीं करते और अपने व्यापार के सिलसिले में ईरान गये थे, जहां ईरान सीमा पर उनको पकड़ा गया लेकिन उनपर भी पाकिस्तान की सैन्य अदालत में मामला चला और उन्हें मौत की सजा सुना दी गई। भारतीय नागरिक पर इस तरह मुकदमा चलने पर पाकिस्तान में भारत के उच्चायोग ने 13 बार चार्जशीट मांगी लेकिन अभी तक उन्हें चार्जशीट की कॉपी उपलब्ध नहीं कराई गई है।

कोविंद अगर गुमनाम हैं, तो जिम्मेदार कौन है?

राष्ट्रपति चुनाव पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

राष्ट्रपति चुनाव की तस्वीर साफ हो चुकी है। एक तरफ बीजेपी और एनडीए ने बिहार के राज्यपाल और पूर्व राज्यसभा सांसद रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार घोषित किया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने 17 राजनीतिक दलों का साथ लेते हुए पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को आगे किया है। जब मीरा कुमार प्रत्याशी घोषित हुईं तो किसी को पूछना नहीं पड़ा कि दरअसल मीरा कुमार कौन हैं, क्योंकि इनके पिता इस देश के उपप्रधानमंत्री रह चुके हैं। वह खुद आईएफएस अधिकारी रही हैं, लोकसभा सांसद रही हैं, केंद्र में मंत्री रहीं और पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान लोकसभा में स्पीकर थीं। जीवन में बहुत कुछ उन्हें विरासत में ही मिला। उन तमाम चीजों के लिए उन्हें कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा, जिसके लिए उस समुदाय को जान की बाजी तक लगा देनी पड़ती है, जिसका वह प्रतिनिधित्व करती हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मीरा कुमार कांग्रेस की सामंतवादी राजनीति का ही हिस्सा हैं और वह देश की पहली इलीट दलित राजनीतिज्ञ हैं। हमें सोचना होगा कि क्या ऐसे अभिजनवादी को देश का राष्ट्रपति होना चाहिए।
जब रामनाथ कोविंद प्रत्याशी घोषित हुए तो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सवाल उठाए कि आखिर ये कौन हैं? ऐसा करने वाली वह अकेली नहीं थीं। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने कहा कि वह (कोविंद) राजनीतिक रूप से कमतर हैं, सामाजिक पहचान ज्यादा नहीं हैं। कई ने उनके बारे में सुना नहीं था। कई लोगों ने कहा कि बीजेपी ने कोविंद पर दांव लगाकर बस दलित कार्ड भर खेला है।
अब हम सब जान चुके हैं कि रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हैं। दो बार के राज्यसभा सांसद रह चुके कोविंद पहले उच्चतम न्यायालय में वकालत करते थे और पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के सहयोगी रह चुके हैं। वह पहले आईआईएम कोलकाता के बोर्ड के सदस्य रह चुके हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। आजकल वो अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष भी हैं, जिसके अपने सरोकार होते हैं जो मीडिया-सोशल मीडिया के लोगों को ज्यादातर नहीं दिखते या वो देखना नहीं चाहते। यहां सवाल यह उठता है कि इतना सक्रिय राजनीतिक और सामाजिक जीवन होने के बावजूद वो हमें दिखाई क्यों नहीं दिए या ऐसे कहें कि हमारी मीडिया ने उन्हें क्यों नहीं दिखाया?
अब जब कोविंद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन गए हैं तो कई सामाजिक-राजनीतिक चिंतकों और पत्रकारों ने यह सवाल उठाया है। वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा कि कोविंद के बारे मे सवाल पूछना हमारी राजनीतिक पत्रकारिता की हालत बयां करता है जो बाबा लोग और सूत्रों पर पूरी तरह आधारित है। मैंने पहले नहीं बताया कि रामनाथ कोविंद 2010 में बीजेपी के प्रवक्ता भी रह चुके हैं, जहां वो बीजेपी के मीडिया रूम में अपनी टिप्पणी, साक्षात्कार और बाइट देने के लिए उपस्थित रहते थे। लेकिन एक प्रवक्ता के रूप में हमने उनके बारे में बहुत कम सुना और देखा। वह पार्टी की आवाज के रूम में मौजूद थे लेकिन उनकी आवाज बहुतों के लिए मायने नहीं रखती थी।
शायद उस दौर के बीजेपी कवर करने वाले बहुत से पत्रकार उनकी बाइट लेना उचित नहीं समझते थे। वरिष्ठ पत्रकार नितिन गोखले ने ट्विटर पर लिखा कि हमारे न्यूज चैनल के व्यवसाय में पैनलिस्टों के लिए एक अलिखित पदानुक्रम निर्धारित है, जिसे आप नस्लीय या जातीय भेद कह सकते हैं लेकिन यही सच्चाई है। उस समय में मीडिया में कोविंद बिल्कुल ही कम दिखे जब उन्हें दिखना चाहिए था। शायद मीडियाकर्मियों को वह अपमार्केट और दूसरे प्रवक्ताओं जैसे नहीं लगते थे। पत्रकार शायद खुद ही राय बना लेते थे कि टीवी की जनता इन्हें देखने और सुनने में रुचि नहीं लेगी। उस समय रिपोर्टिंग कर चुके एक पत्रकार ने बहुत ही सटीक ढंग से लिखा कि अपने शक्तिशाली माइकों के साथ पत्रकार सारा दिन राजीव प्रताप रूडी, प्रकाश जावड़ेकर और रविशंकर प्रसाद का इंतजार करते रहते थे लेकिन कोविंद की बाइट नहीं लेते थे। वह आगे लिखते हैं कि ऐसा नहीं कि सारी गलती पत्रकारों की ही थी। मीडिया दफ्तरों में बैठे आका तय करते थे कि किसकी बाइट लेनी है और किसे स्टूडियो में बैठाना है। ऐसे समय में जब जब कोई भी उपलब्ध नहीं होता था तब भी कोविंद की बाइट लेने से इनकार कर दिया जाता था।

मोदी के दौर की फिल्म है बाहुबली

फिल्म बाहुबली पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

आंकड़े बता रहे हैं कि बाहुबली भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी फिल्म बन चुकी है। फिल्म को रिलीज हुए दस दिन नहीं हुए और 1000 करोड़ रुपए का कोरबार कर अब तक के सारे रेकॉर्ड तोड़ चुकी है और आने वाले दिनों में नए प्रतिमान गढ़ेगी। ऐसे समय में सोचना चाहिए कि इस फिल्म ने ऐसा क्या बताने, दिखाने की कोशिश की गई जो अब तक की फिल्में नहीं कर पा रही थीं।
बाहुबली एक वैभवशाली, गौरवशाली अतीत के भारतीय राज्य और समाज का चित्रण करती है जो किसी कल्पना से कम नहीं लगता। ऐसा कहा जाता है कि जिसकी कल्पना की जा सकती है, उसे पाया भी जा सकता है। यह फिल्म हमारे सामने एक ऐसी आदर्श व्यवस्था प्रस्तुत करती है और साथ ही यह भी बताने की कोशिश करती है कि ऐसा आदर्श समाज, राज्य, नायक और प्रजा इस धरती पर पहले भी हुए हैं। लोगों में एक विश्वास भरती है कि हम भी कुछ कर सकते हैं। आम लोगों के बीच में पला बढ़ा नायक धर्म की स्थापना करता है और सत्य के लिए संघर्ष करता है।
वैसे तो हर समाज को एक नायक की तलाश रहती है लेकिन एक ऐसा समाज जिसके पास बताने के लिए 5000 साल के गौरव की कहानी हो, उसे हमेशा यह जानने की उत्सुकता रहती है कि उसके अलग-अलग दौर का नायक कैसा था और उसका आज का नायक कैसा होगा।

वैसे कई फिल्म रिव्यू पढ़कर ऐसा लगा कि कुछ लोगों को बाहुबली फिल्म अजीब लगी। यह हमारी माया नगरी में होना स्वाभाविक भी है क्योंकि यहां सीरियल किसर और पॉर्न स्टार को हमारे ऊपर नायक और नायिका के रूप में थोपा जाता है जिनकी कहानियों का कथानक उस काली कोठरी से गुजरने जैसा होता है जिसमें आपका जिस्म और मन दोनों के काले होने के निकलने की संभावना बहुत बढ़ जाती है लेकिन डार्क और रियलिस्टिक सिनेमा के नाम पर आपके सामने फूहड़ता परोस दी जाती है।
दिए हुए वचन के लिएसत्य और न्याय के लिएधर्म स्थापना के लिएकिसी के भी विरुद्ध जाना पड़े, वो चाहे परमात्मा ही क्यों न होतो भयभीत ना होयही धर्म है’- आज के दौर में जब संप्रेषण के सबसे प्रभावी माध्यम से यह संवाद डॉल्बी डिजिटल में गूंजता है तो हर भारतीय के सामने एक आदर्श प्रस्तुत होता है। समाज के बीच से निकला नायक अपनी मां, प्रेमिका, जनता और राज्य के लिए कैसे न्यायोचित, तर्कसंगत और धर्मनिष्ठ भूमिका निभाता है ये हमें इस फिल्म से पता चलता है।

क्या आंबेडकर राष्ट्रवाद के खिलाफ थे?

डॉ भीमराव अंबेडकर और राष्ट्रवाद पर नवभारत टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख.

भारत रत्न डॉ. भीम राव आंबेडकर आज के दौर में भारत के सबसे महान नेता, विचार और सामाजिक दार्शनिक के रूप में उभर कर आए हैं। उनके जन्मदिवस की 125 वर्षगांठ उनके जन्मशताब्दी वर्ष से अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाई गई। एक बड़ी पत्रिका ने उन्हें आधुनिक भारत का महानतम नेता बताया। इस तरह से कहा जा सकता है कि आंबेडकर के विचार वर्तमान दौर के विमर्श में और अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं।
1947 से पहले स्वतंत्रता ही देश का मुख्य स्वर था और साथ में कई अलग-अलग स्वर भी थे। सबसे प्रभावशाली स्वर कांग्रेस का था जो अंग्रेज उपनिवेशवादियों से देश को आजाद कराना चाहते थे। एक स्वर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी था जो तब तक बहुत कमजोर था और भारत के पुनर्निमाण की बात कर रहा था। उनका मानना था कि भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को मजबूत करके ही देश का पुनरुद्धार किया जा सकता है।
इसी दौर में आंबेडकर भी एक मजबूत स्वर के रूप में उभरे। उन्होंने सामाजिक असमानता और छुआछुत से आजादी की बात कही। इसे राष्ट्रवाद का सबाल्टर्न रूप कह सकते हैं जिसमें नीचे से आवाजें उठती हैं और जो समाज के सबसे कमजोर, वंचित और शोषित वर्ग की बात करता है जो औपनिवेशक भारत के सामाजिक जीवन में कहीं हिस्सा नहीं ले रहा था। बाबा साहब आंबेडकर इन 6 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि बन गए। समाज के इस वर्ग की मुक्ति के बिना भारत का स्वतंत्रता आंदोलन पूर्ण नहीं था। 20वीं सदी के भारत की आजादी का आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों से राजनीतिक शक्ति हासिल करना नहीं था बल्कि भारत को रूढ़िवादी परंपराओं और संस्थाओं से मुक्ति दिलाकर एक आधुनिक राष्ट्र बनाना भी था।
आंबेडकर के प्रयासों के कारण ही ये विचार विकसित हुआ कि हमें आंतरिक और बाहरी गुलामी से स्वतंत्रता पानी है। इसके परिणामस्वरूप हमारे राष्ट्रवादी आंदोलन को आंतरिक मजबूत से किया और उसका सामाजिक आधार फैलाया।
आंबेडकर राष्टवाद के खिलाफ नहीं थे लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रवाद के खिलाफ थे जो भारत को अंग्रजों से आजाद करने की बात तो करता था लेकिन ब्राह्मणवादी शोषण पर चुप था जिसके कारण करोड़ों लोग सैकड़ों सालों से शोषण का शिकार थे। आंबेडकर के दबाव में ही कांग्रेस ने वंचित वर्ग की समस्याओं का राजनीतिक स्तर पर संज्ञान लिया जिससे अधिक से अधिक लोग आजादी के आंदोलन से जुड़ने लगे।

शुरुआत से ही आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति उच्चवर्ग (ऊंची जाति) से प्रभावित थी जिसमें उसी वर्ग के लोगों के हित की बात की जाती थी। इसलिए जब इन राष्ट्रवादीनेताओं ने राष्ट्रीय हितों की बात कही तो बस अपने वर्गीय हितों की बात कही। इस प्रवृत्ति को पंडित नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इन शब्दों में देखा जा सकता है, दर्शन और धर्म, इतिहास और परंपरा, सामाजिक तानेबाने और रीतिरिवाज के मिश्रण से ही भारतीय जनजीवन लगभग सभी हिस्से बनकर तैयार होते हैं जिसे ब्राह्मणवाद या हिंदू कहा जा सकता है और यही भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है।

Sunday 25 November 2018

Glimpses from my US Visit in October-November 2018


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Debate on Ayodhya Ram Temple Issue on Zee Salam


Atal Bihari Vajpayee's 93rd birthday: The man who brought governance and development into political agenda

I wrote this article on the 93 birth anniversary of Vajpayee for Firstpost.
You can read a version of the article below:

Governments come and go and parties are born and disappear. Above it all, the country must stay shining, its democracy immortal. Former prime minster Atal Bihari Vajpayee said this while speaking at the Confidence Motion in Parliament on 28 May, 1996. The government that was formed that day ran for only thirteen days as he was not ready for horse-trading of MPs.
In the course of his long political journey, Vajpayee's personal integrity did not receive a single stain and his political chastity and credibility remained impeccable. Better known as Atalji, he could easily make space among people through his mild manners, gentle humour and poetic lilt. After Jawaharlal Nehru, he is the only Indian political leader under whose direction a party won three general elections in a row.
Vajpayee was conferred the Padma Vibhushan in 1992 and in 1994 he was named the best parliamentarian. At the BJP convention in November, 1995, he was declared the prime ministerial candidate for the upcoming Lok Sabha polls. In 1996, BJP emerged as the single largest party and Vajpayee took oath as the prime minister. This government , however, did not last long. In his historical speech in Parliament during the floor test he said that he will not touch corruption even with a kitchen tong (chimta). The government fell one by one.

Politics of Governance

The six years during which Vajpayee led the country, redefined Indian politics. BJP contested the elections with the slogan of ‘Able leadership, Stable Government’ and Vajpayee gave the country a much-needed stable government.
During his term as the prime minster, Vajpayee took several new initiatives. In 1998, showing great political dynamism and gusto, he green-signalled the nuclear tests that made India a full nuclear power. The USA and other countries put India under sanctions which failed to have an impact. Within one-and-a-half year, first President Bill Clinton and then other world leaders visited India and signed partnership agreements. For the first time India was beginning to make its foray as an emerging world power.
The reforms pushed by the Vajpayee government, improved the country's economic growth rate which reached 6-7 percent and the benefits of this percolated to the grassroots. Employment was generated, record foreign investment was registered and infrastructure improved like never before. India emerged as an IT super power in the world. People felt development work around them.
Vajpayee started an ambitious project to connect four ends of India with a four-lane road. It was a herculean task given the sheer volume of the project. The Golden Quadrilateral project started to became a reality with an average of 15-km road being laid each day. This project helped in putting economy on growth track. Another related project was the Prime Minster Gram Sadak Yojana whose target was to connect all the villages with the city roads.
At a BJP national executive held on 15th April, 2000, he wondered 'What after political success'. He also answered his own question saying now that the party had governments in centre and many states, its leaders should make efforts to improve the quality of governance. National interest and people ’s service should be our top priority while doing politics of governance, he said.
Vajpayee declared his long-time associate and Union Home Minster LK advani as the Deputy Prime Minster. The then BJP president Venkaiah Naidu termed Vajpayee as Vikas Purursh (Man of Development) and Advani as Lauh Purursh (Iron Man) in 2002.
On 12 January, 2004 at the Hyderabad BJP national executive, Vajpayee announced the decision to go in for elections. He said, the BJP is not just a political party but a movement of social transformation. "Different sections of the society are coming to our fold. We should again take verdict of the people and try to fulfil their aspiration. We should make all our efforts to make India a develop country by 2020," he said.
BJP lost 2004 general elections by a few seats. Atalji said after the results, "We have lost the government but we have not lost sight of our commitment to national service. We have lost elections not the determination. Victory or loss are integral parts of life, we accept them with equanimity." Atalji gave up political life in 2005. In 2015, President Pranab Mukherjee visited Vajpayee at his house in a special gesture and conferred the highest civilian honour - the Bharat Ratna - to him.
Observing his commitment to governance and development, the central government has decided to celebrate his birthday as Good Governance Day. Besides being a man of masses, an author, journalist and thinker, Atalji also was a great administrator and statesman. He set the new standard of politics - one of governance and development - inspiring millions who contribute to the country's social and political life.

Dattopant Thengadi: Man Who Brought Workers And Peasants Under The Saffron Flag

I wrote this article on Dattopant Thengadi for Swarajya. You can read a version of the article below:

In the 1950s, one-third of the world was besotted with communist ideology. The famous slogan in India then was Lal kile pe lal nishan, maang raha hai Hindustan (India wants to see the red sign at Red Fort). The Left ideology dominated the labour movement in India at that time. It was at this juncture that Dattopant Thengadi successfully made inroads into worker and peasant movements in India and established the Bharatiya Mazdoor Sangh (BMS) in 1955. Today, BMS is a leading workers' organisation in the world and represents the country at bodies like the International Labour Organization.

Rise In Public Life

Dattopant Thengadi was born on 10 November 1920 in Vardha, Maharashtra. After completing BA and LLB, he became a Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) pracharak in 1942. At the age of 15, he joined Vanar Sena in Vardha to fight for the freedom of the country. As an RSS pracharak, he was sent to Kerala where he stayed for two years and was later transferred to Bengal. In 1949, he was assigned the task of organising workers and labourers. Six years later, he established the BMS which later became the largest labour organisation in India.
Thengadi entered Bharatiya Jan Sangh (BJS) under the directive of the RSS and worked as an organising secretary in Madhya Pradesh and in the south India. He was a member of Rajya Sabha from 1964 to 1976, where he raised demands of workers and peasants. When Nanaji Deshmukh and Ravindra Verma, the secretaries of Struggle Committee against Emergency were arrested, Thengadi took up the mantle and directed all his efforts towards the foundation of the Janata Party. But, he did not like politics and returned to his first love - workers and peasant movement.
He was the founder of many other organisations like the Swadesh Jagran Manch, Samajik Samrasta Manch and others.
As an author, he wrote more than 80 books and booklets, most of which dealt with the hardships of workers and the downtrodden. His books include Labor Policy, Karykarta, Destination, Focus, The Hindu View of Arts, The Perspective, Our National Renaissance, Third Way, Ambedkar and Social Revolution.
Saurashtra University, Gujarat, conferred a doctorate on him for his contribution to the labour and peasant movement in India.

Workers, Unite The World

With the consent of Guru Golwalkar, Thengadi had been organising workers since 1949. He applied Deendayal Upadhyay’s philosophy of integral humanism to the cause of workers and peasants and replaced the idea of class struggle with class coordination and cooperation. He was the first person in Indian history who established a worker's movement that was not inspired by Marxist ideology or any other political party and factored in the Indian value system. He was of the view that with time and space, ideas and their relevance changes. At the first all-India workshop of BMS on 27 October 1968 in Maharashtra, he said, “If there exist different societies in different conditions in same time period, then there could be no one 'ism' for them. Similarly one idea cannot be considered appropriate for one society over different time periods. Nor a single 'ism' can be a panacea of all ills because time and conditions change and any ideology or 'ism' takes shape out of the knowledge pool of that time.'
Thengadi was clear that the fight had to be against injustice and not against any class. He gave the call, ‘workers, unite the world’ in place of ‘workers of the world, unite’.
Earlier, chanting Bharat Mata ki Jai and Vande Matram at rallies and programmes of workers was unheard of. BMS broke this silent taboo and started hoisting a saffron flag and chanting nationalist slogans.
Thengadi wanted to free the labour movement from the clutches of the Left that looked to the then USSR and China for inspiration. So he gave the slogan - Lal gulami chhod ker, bolo Vandematram. (Leave Red slavery, chant Vande Matram).
The movement from red flag to saffron had a deep impact and even today the indigenous labour movement, BMS, use a saffron flag.
The core philosophy of BMS entails nationalisation of workers, industrialisation of nation and labourisation of industries (Shramikon ka Rashtriyakaran, Rashtra ka Audyogikikaran aur Udyogon ka Shramikikaran).
In Moscow, Thengadi floated the idea of an apolitical labour confederation at an international meeting of World Federation of Trade Unions. This forum was supported by Leftists and his resolution was rejected. He, along with others, floated a new labour federation at the intentional level and named it 'General Confederation of World Trade Unions' and provided it with a white coloured flag in the place of the trademark red one.
In 1985, for the first time, a nationalist labour organisation was invited by the Communist Party of China and a BMS delegation participated under the leadership of Thengadi. Every year now, a BMS delegation takes part in the labour conference in China.
After membership verification in 1989, the Labour Ministry of the government of India declared BMS as the largest labour organisation in the country.
A great scholar, organiser and a greater leader and activist, Thengadi walked the path that none before him had taken. Over the years he became a huge source of inspiration for millions of activists striving for the welfare of workers and peasants.

Search For The ‘Third Way’

Thengadi worked under the ideological guidance of Dr Hedgewar and Guru Golwalkar. He himself became margdarshak (patron) of many organisations and asked juniors to lead these. He believed that a senior should assume the role of a patron and a junior should lead the movement.
He studied both the dominating ideologies of the world and also visited capitalist and socialist countries, and reached a conclusion that there is a need for a third way. He was of the firm belief that the third way could emerge only from the Indian soil.
In one of his lectures at Bengaluru, he claimed that we should not imitate the West blindly. He declared that Westernisation is not modernisation. “We do not think that modernisation is westernisation: Due to over a century of brain washing through Macaulay system of English education, majority of Indians are habituated to believe that anything west is always best. To be modern our lifestyle and thought style should necessarily be western. However this is only a mental blockade. We must come out of it at the earliest and be prepared to think free of western biases. We must accept that modernisation is not westernisation and westernisation is not modernisation.’
He described swadeshi economy through four features - one with free competition without manipulated market, where movement is towards equitability and equality, where nature is milked but not ravaged, and where there is self-employment and not wage employment.
He always fought against economic inequality and opposed social inequality at every level. He worked with Dr B R Ambedkar during the Lok Sabha election in Bhandara, Maharashtra and understood his feelings both towards the marginalised sections of society and nationalism. On 14 April 1983, he established the Samajik Samrasta Manch (Social Harmony Forum) on the birth anniversary of Dr Ambedkar. Ambedkar Aur Samajik Kranti (Ambedkar and Social Revolution) was his last book where he elaborated the idea of social justice and nationalism propounded by Babasaheb.
He was of the firm view that national rejuvenation is possible only through people who strongly believe in the traditional knowledge system of India.
Dattopant Thengadi worked with labour movements but never compromised on the idea of cultural nationalism and national reconstruction. In 2011, workers of the Communist, Centre Of Indian Trade Unions (CITU) joined BMS in chanting Bharat Mata ki Jai and Vande Matram at a workers' rally. The ideas that Thengadi had sown, had come to fruition five decades later.