डॉ श्रीप्रकाश सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक पॉलिटिक्स फॉर
अ न्यू इंडिया: अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिव ` की
पाञ्चजन्य में प्रकाशित मेरी समीक्षा
मुगलों और तुर्कों ने भारतीय मंदिर और शिक्षा
के केंद्र नष्ट किए लेकिन अंग्रेजों ने इन केंद्रों के प्रति अनास्था उत्पन्न की.
इसीलिए उन्होंने ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त थी.
जिसमें पश्चिम से उपजा ज्ञान ही अंतिम सत्य नजर आता था. इस उपनिवेशवादी मानसिकता
ने हमें उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी कुछ नया और मौलिक के संधान से दूर किया. आज
आजादी के सत्तर साल बाद भी ऐसा लगता है कि हम हजारों सालों से अभिसिंचित भारतीय
चिंतन परंपरा और सभ्यतागत विमर्श से कितने दूर हैं. हालांकि कुछ कोशिशें समय समय पर
जरूर होती रही हैं.
विज्ञान से लेकर सामाजिक विज्ञान तक ऐसे कई हैं
जिन्होंने अपने स्तर पर काफी काम किया. वैसे तो हर क्षेत्र महत्वपूर्ण है लेकिन एक
बड़ा काम जहां करने की जरूरत है वो क्षेत्र है सामाजिक विज्ञान का. ऐसे कुछ लोग
हुए भी हैं जिन्होंने विश्वविद्यालय व्यवस्था के अंदर और बाहर रहकर इतिहास,
समाजशास्त्र
और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि से काम किया. वासुदेव शरण अग्रवाल, कुबेरनाथ
राय, गोविंद चंद पांडे, राम स्वरूप और सीताराम गोयल कुछ ऐसे ही
नाम हैं जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में अच्छा काम किया है.
पिछले कुछ सौ सालों में पश्चिम में पुनर्जागरण
के बाद हुए औद्योगिकीकरण और विज्ञान, तर्क, संस्कृति,
कला
के विकास के बीच से जो विमर्श निकला उसमें सवाल, संधान और समाधान
के लिए एक ऐसा वातावरण बनाया कि दुनिया के उस हिस्से में मानव सभ्यता, विकास
और वैभव की नई ऊंचाइयां छूने लगी. मानव जीवन में स्वतंत्रता, समानता
और बंधुत्व को उन्होंने समझा और उसके पीछे तर्क का पूरा ताना-बाना गढ़ा गया.
जैफरसन, लॉक, रूसो, मिल, बेंथम, बर्क,
लास्की
जैसे दर्जनों चिंतकों, विचारकों ने पोथियां लिख डालीं मानवाधिकारों,
मानव
जीवन के महत्व और अवसर की समानता पर. ये सब ज्ञान किताबों में नहीं रहा बल्कि
पिछले 250 सालों में धरातल पर भी उतरा.
लेकिन इनका सारा ज्ञान -पोथी से लेकर धरातल तक
- सिर्फ अपनी दुनिया के लिए ही था. बाकी दुनिया को तो ये सभ्य बनाने में लगे थे.
रुडयार्ड किपलिंग की भाषा में ‘वाइट मेन्स बर्डन’. इसलिए
यहां का ज्ञान की महानता को क्यों स्वीकार करते. अब सोचने की बात यह है कि क्या
भारत के पास ऐसी समझ नहीं थी. पड़ताल करने पर पता लगता है कि इन विषयों पर पश्चिम
से बहुत पहले चिंतन भारत में हो चुका था. डॉ अंबेडकर ने खुद कहा था कि मैंने
समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व फ्रांस की क्रांति से नहीं बल्कि महात्मा
बुद्ध के दर्शन को पढ़कर जाना है. यानी कि एक चिंतन धारा थी जो बाहरी तत्वों
द्वारा अवरुद्ध की गई. आक्रांताओं के आक्रमण, शोषण और आतंक
में भारत जो विश्वगुरू था वो गुलाम हो गया. और, गुलाम लोग कभी संधानकर्ता
नहीं होते, गुरू नहीं बनते.
इसलिए हमें प्रयास करने चाहिए कि भारतीय ज्ञान
परंपरा फिर से विकसित हो. ऋषि और कृषि संस्कृति से निकला हमारा सभ्यतागत विमर्श
फिर अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करे. इसे चाहे - भारतीय पक्ष, इंडिक
वे, इंडो-सेंट्रिक एजूकेशन, भारतीयकरण, सैफर्नाइजेशन,
भगवाकरण,
इंडियनाइजेशन
जो कहें लेकिन आज इसकी आवश्कता सबसे अधिक है. ये ज्ञानधारा किसी के समानांतर और
विरोध में नहीं बल्कि विश्व ज्ञान कोष के सागर में भारत का अपना योगदान है जो
मौजूदा समय के सवालों के भारतीय जवाब देने की कोशिश करेगा.
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के
प्रफेसर श्रीप्रकाश सिंह की नई किताब ‘पॉलिटिक्स फॉर न्यू इंडिया : अ
नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिव’ उसी दिशा में एक आगे लिया हुए कदम है.
उनके द्वारा संपादित इस पुस्तक में भारतीय समाज और राजनीति के मौजूदा दौर के मुद्दों
को भारतीय दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है. विश्वविद्यालय व्यवस्था में रहते
हुए ऐसे विषयों पर काम करना कुछ वर्षों पहले तक थोड़ा कठिन था और सामाजिक विज्ञान
में भारतीय ज्ञान परंपरा भी उतनी मजबूती से खड़ी दिखाई नहीं दी थी.