Wednesday 5 December 2018

सामाजिक विज्ञान की भारतीय दृष्टि

डॉ श्रीप्रकाश सिंह द्वारा सम्पादित पुस्तक पॉलिटिक्स फॉर अ न्यू इंडिया: अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिव ` की पाञ्चजन्य में प्रकाशित मेरी समीक्षा

मुगलों और तुर्कों ने भारतीय मंदिर और शिक्षा के केंद्र नष्ट किए लेकिन अंग्रेजों ने इन केंद्रों के प्रति अनास्था उत्पन्न की. इसीलिए उन्होंने ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जो उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त थी. जिसमें पश्चिम से उपजा ज्ञान ही अंतिम सत्य नजर आता था. इस उपनिवेशवादी मानसिकता ने हमें उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी कुछ नया और मौलिक के संधान से दूर किया. आज आजादी के सत्तर साल बाद भी ऐसा लगता है कि हम हजारों सालों से अभिसिंचित भारतीय चिंतन परंपरा और सभ्यतागत विमर्श से कितने दूर हैं. हालांकि कुछ कोशिशें समय समय पर जरूर होती रही हैं.
विज्ञान से लेकर सामाजिक विज्ञान तक ऐसे कई हैं जिन्होंने अपने स्तर पर काफी काम किया. वैसे तो हर क्षेत्र महत्वपूर्ण है लेकिन एक बड़ा काम जहां करने की जरूरत है वो क्षेत्र है सामाजिक विज्ञान का. ऐसे कुछ लोग हुए भी हैं जिन्होंने विश्वविद्यालय व्यवस्था के अंदर और बाहर रहकर इतिहास, समाजशास्त्र और दर्शन के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि से काम किया. वासुदेव शरण अग्रवाल, कुबेरनाथ राय, गोविंद चंद पांडे, राम स्वरूप और सीताराम गोयल कुछ ऐसे ही नाम हैं जिन्होंने पिछले कुछ दशकों में अच्छा काम किया है.
पिछले कुछ सौ सालों में पश्चिम में पुनर्जागरण के बाद हुए औद्योगिकीकरण और विज्ञान, तर्क, संस्कृति, कला के विकास के बीच से जो विमर्श निकला उसमें सवाल, संधान और समाधान के लिए एक ऐसा वातावरण बनाया कि दुनिया के उस हिस्से में मानव सभ्यता, विकास और वैभव की नई ऊंचाइयां छूने लगी. मानव जीवन में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को उन्होंने समझा और उसके पीछे तर्क का पूरा ताना-बाना गढ़ा गया. जैफरसन, लॉक, रूसो, मिल, बेंथम, बर्क, लास्की जैसे दर्जनों चिंतकों, विचारकों ने पोथियां लिख डालीं मानवाधिकारों, मानव जीवन के महत्व और अवसर की समानता पर. ये सब ज्ञान किताबों में नहीं रहा बल्कि पिछले 250 सालों में धरातल पर भी उतरा.
लेकिन इनका सारा ज्ञान -पोथी से लेकर धरातल तक - सिर्फ अपनी दुनिया के लिए ही था. बाकी दुनिया को तो ये सभ्य बनाने में लगे थे. रुडयार्ड किपलिंग की भाषा में वाइट मेन्स बर्डन’. इसलिए यहां का ज्ञान की महानता को क्यों स्वीकार करते. अब सोचने की बात यह है कि क्या भारत के पास ऐसी समझ नहीं थी. पड़ताल करने पर पता लगता है कि इन विषयों पर पश्चिम से बहुत पहले चिंतन भारत में हो चुका था. डॉ अंबेडकर ने खुद कहा था कि मैंने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व फ्रांस की क्रांति से नहीं बल्कि महात्मा बुद्ध के दर्शन को पढ़कर जाना है. यानी कि एक चिंतन धारा थी जो बाहरी तत्वों द्वारा अवरुद्ध की गई. आक्रांताओं के आक्रमण, शोषण और आतंक में भारत जो विश्वगुरू था वो गुलाम हो गया. और, गुलाम लोग कभी संधानकर्ता नहीं होते, गुरू नहीं बनते.
इसलिए हमें प्रयास करने चाहिए कि भारतीय ज्ञान परंपरा फिर से विकसित हो. ऋषि और कृषि संस्कृति से निकला हमारा सभ्यतागत विमर्श फिर अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करे. इसे चाहे - भारतीय पक्ष, इंडिक वे, इंडो-सेंट्रिक एजूकेशन, भारतीयकरण, सैफर्नाइजेशन, भगवाकरण, इंडियनाइजेशन जो कहें लेकिन आज इसकी आवश्कता सबसे अधिक है. ये ज्ञानधारा किसी के समानांतर और विरोध में नहीं बल्कि विश्व ज्ञान कोष के सागर में भारत का अपना योगदान है जो मौजूदा समय के सवालों के भारतीय जवाब देने की कोशिश करेगा.
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रफेसर श्रीप्रकाश सिंह की नई किताब पॉलिटिक्स फॉर न्यू इंडिया : अ नेशनलिस्टिक पर्सपेक्टिवउसी दिशा में एक आगे लिया हुए कदम है. उनके द्वारा संपादित इस पुस्तक में भारतीय समाज और राजनीति के मौजूदा दौर के मुद्दों को भारतीय दृष्टि से समझने की कोशिश की गई है. विश्वविद्यालय व्यवस्था में रहते हुए ऐसे विषयों पर काम करना कुछ वर्षों पहले तक थोड़ा कठिन था और सामाजिक विज्ञान में भारतीय ज्ञान परंपरा भी उतनी मजबूती से खड़ी दिखाई नहीं दी थी.
प्रफेसर सिंह की किताब में दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग-अलग कॉलेज में पढ़ा रहे प्राध्यापकों और शोधकर्ताओं के अध्याय हैं. कुल दस अध्याय वाली इस पुस्तक में पंथ-निरपेक्षता, राष्ट्रवाद, सामाजिक न्याय और समरसता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विकास के मॉडल, आतंकवाद, लैंगिक समानता सहित कई अन्य विषयों पर भारतीय दृष्टि से बात की गई है. पुस्तक की भूमिका में संपादक लिखते हैं कि अबतक का सामाजिक विज्ञान का विमर्श पश्चिम केंद्रित है जो काफी हद तक उपनिवेशवादी प्रकृति की तरफ ही इशारा करता है. हालांकि उन्होंने साफ किया है कि नए तर्क देते हुए भी ये किताब अब तक हुए अकदामिक रूप से प्रयासों का सम्मान करती है. आज जब एक नए भारत के निर्माण की बात हो रही है तो ऐसे समय में नए भारत की राजनीति क्या हो, उसका सैद्धांतिक आधार क्या हो- इन सब विषयों को छूने की कोशिश इस पुस्तक में है.
किताब की शुरआत पंथनिरपेक्षता के दो अध्यायों से होती है जिसमें से एक में पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत की व्याख्या धर्म और अद्वैत के मानकों पर की गई है और दूसरे में पंथनिपेक्षता को भारतीय और वैश्विक परिपेक्ष्य में समझने की कोशिश है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उसके सामाजिक समसरता के कामों से समझने की कोशिश अगले अध्याय में है जिसमें संघ के सामाजिक न्याय के सिद्धांत और व्यवहार पर उदाहरण सहित चर्चा है. सरसंघचालकों के भाषणों से लेकर धरातल पर चलाए जा रहे प्रकल्पों के माध्यम से संघ समाज को कैसे समरस बना रहा है- इन सब बातों का उल्लेख इस अध्याय में है. संघ के हिंदुत्व, राम मंदिर और भाजपा से संबंध वाले पक्ष पर तो काफी कुछ लिखा गया है लेकिन संघ की सामाजिक न्याय पर समझ के बारे में ये अध्याय एक अच्छा प्रयास है.
एक अध्याय केरल के विकास मॉडल पर भी है जिसमें यह बताया गया कि कैसे केरल का विकास मॉडल पिछले दशकों में साम्यवादी और कांग्रेसी शासन में कमजोर हुआ है. हमें उच्च साक्षरता वाला जो केरल दिखाई देता है उसके लिए आजादी से पहले के रजवाड़े और सामाजिक आंदोलन जिम्मेदार थे जिन्होने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में केरल में अच्छा काम किया. देश में वंद मातरम् के नाद के इर्दगिर्द राष्ट्रवादी चेतना का उभार और प्रचार प्रसार कैसे हुआ इस पर आधारित भी एक अध्याय है. इस्लामिक आतंकवाद और नक्सलवाद को जिस तरह आम जन की आवाज बताकर सही ठहराने की कोशिश होती है उसका जवाब देता एक अध्याय भी है जो बताता है कि कैसे दिल्ली जैसे बड़े केंद्रों पर बैठे अकदामिक, पत्रकार और एनजीओ वाले आतंकवाद का महिमामंडन करते हैं.
पेट को आहार, मस्तिष्क को विचार और आत्मा को संस्कार और मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि हर जीव और जगत पर विचार करने वाले एकात्ममानववाद के सिद्धांत पर भी एक अध्याय है जिसका प्रतिपादन जनसंघ के संस्थापक और विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने किया था. पश्चिम में पिछली सदी में प्रतिपादित किए गए फेमिनिज्म के सिद्धांत पर भी दो अध्याय इस पुस्तक में हैं. भारतीय समाज के औरतों की स्थिति में सुधार के लिए डॉ अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया था जिसे नेहरू ने पूरे स्वरूप में आने नहीं दिया और महिलाओं की स्थिति खराब रही. हालांकि देश में समान नागरिक संहिता की मांग भी लंबे समय से हो रही है. अगर ऐसा कोई कानून आता है तो माना जाना चाहिए महिलाओं के साथ-साथ कई और सुधार भारतीय समाज में देखने को मिलेंगे. समान नागरिक संहिता के इसी विषय पर पुस्तक का अंतिम अध्याय है जो विषय की पृष्ठभमि और मोदी सरकार द्वारा इस दिशा में किए गए प्रयासों की चर्चा करता है. 
कहना ना होगा कि हमें सामाजिक विज्ञान में भारतीय दृष्टि विकसित करने के लिए एक सैद्धांतिक आधार विकसित करने की जरूरत है. उसके बिना कोई भी प्रयास लंबा नहीं टिक पाएगा. उसके लिए भारतीय विश्वविद्यालयों के साथ-साथ दुनिया के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में भी भारतीय दृष्टि से काम करने वाले केंद्र विकसित करने पड़ेंगे. लेकिन इन सबसे पहले हमें तय करना पड़ेगा कि हमारी ज्ञान परंपरा का शुरुआती बिंदु (वैन्टेज प्वाइंट) क्या होगा. सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए प्रफेसर सिंह की यह पुस्तक इस दिशा में मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होती दिखाई देती है.

2 comments:

  1. बहुत ही बहतरीन लेख हैं स्वदेश जी

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  2. Great, Dr Singh you have elaborated very simple and keenly.

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