डॉ. आंबेडकर पर रोजगार समाचार मे प्रकाशित मेरा
लेख
भारत एक सनातन सभ्यता है. यहां संघर्ष, समन्वय
और समरसता साथ-साथ चलती रहती है. लेकिन समस्या तब होती है जब कुछ लोग अपने हित
साधने के लिए समाज में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करने लगते हैं जिससे कभी-कभी
देश की एकता और अखंडता को भी खतरा उत्पन्न होने लगता है. भारत में जाति से जुड़ी
समस्याएं भी कुछ ऐसा ही रूप धर कर सामने आ रही हैं. ऐसे समय में संविधान निर्माता
डॉ. भीम राव आंबेडकर और भी प्रासंगिक होकर
उभरते हैं.
गांधी से आंबेडकर की ओर
इस दशक में आंबेडकर हमारे सामाजिक-राजनीतिक
विमर्श में कुछ इस तरह उभरे हैं कि वो महात्मा गांधी से भी महत्वपूर्ण नजर आते
हैं. इसका एक कारण ये हो सकता है कि जहां गांधी ने अहिंसक तरीकों से सिर्फ
राजनीतिक आजादी और समानता की बात कही वहीं आंबेडकर शुरू से सामाजिक-आर्थिक समानता
की बात कर रहे थे. देश को 1947 में आजादी मिल गई और संविधान ने हम सब
को एक व्यक्ति-एक मत के माध्यम से राजनीतिक समानता भी दे दी. पिछले सत्तर साल में
राजनीतिक समानता का काम काफी हद तक पूरा भी हो चुका है लेकिन समाजिक और आर्थिक
स्तर पर समानता और आजादी मिलना अभी बाकी है. भारतीय संविधान के प्रमुख लक्ष्यों
में जिस सामाजिक और आर्थिक समानता, न्याय और स्वतंत्रता की बात कही गई है
उस पर कुछ काम ही हो पाया है और बहुत तरीकों से काम किया जाना बाकी है. ऐसे ही दौर
में डॉ. आंबेडकर एक प्रकाश स्तंभ बनकर उभरते हैं जो हम सबको रास्ता दिखाते हैं.
डॉ. आंबेडकर स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी इस बात के समर्थक थे कि राजनीतिक आजादी
के कोई मायने नहीं होंगे अगर सामाजिक-आर्थिक स्तर पर शोषण जारी रहा और हमें इसके
गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं.
डॉ. आंबेडकर ने एक ऐसे भविष्य की कल्पना की थी
जो पूरी तरीके से परिवर्तनकारी होगा. भारत को अगर सही अर्थों में एक प्रगतिशील,
आधुनिक
और विकसित समाज और राज्य बनने की तरफ तेजी से बढऩा है तो आंबेडकर के विचारों को
मूर्त रूप देने के लिए अथक प्रयास करने होंगे.