Monday, 4 March 2019

21वीं सदी में युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद की प्रासंगिकता

स्वामी विवेकानंद पर रोजगार समाचार मे प्रकाशित मेरा लेख

स्वामी विवेकानंद एक ऐसे आदर्श युवा हुए हैं, जो भारत में जन्मे परंतु जिन्होंने विश्वभर के करोड़ों युवाओं को प्रेरित किया. 1893 में शिकागो धर्म संसद में दिए गए भाषण की बदौलत वे पश्चिमी जगत के लिए भारतीय दर्शन और अध्यात्मवाद के प्रकाशस्तंभ बन गए. उसके बाद से वे युवाओं के लिए एक सदाबहार प्रेरणा स्रोत रहे हैं. 21वीं सदी में जबकि भारत के युवाओं को नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, वे अपने दायरों से बाहर आ रहे हैं और बेहतर भविष्य की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में स्वामी विवेकानंद उनके लिए और भी प्रासंगिक हो गए हैं. जीवन अगर सार्थक नहीं है, तो उसे सफल नहीं कहा जा सकता. युवाओं की सबसे बड़ी खोज ऐसे सार्थक जीवन की है, जो हृदय को प्रेरित, मस्तिष्क को मुक्त और आत्मा को प्रज्ज्वलित करे. स्वामी विवेकानंद इसे अच्छी तरह समझते थे. उनके विचारों को इस चार सूत्री मंत्र के जरिए समझा जा सकता है, जिसमें सार्थक जीवन के लिए भौतिक, सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक खोज अनिवार्य है. भौतिक खोज से उनका अभिप्राय: है - मानव शरीर की देखभाल करना और ऐसी गतिविधियों को अंजाम देना, जो शारीरिक कष्टों को कम करने वाली हों. इसका लक्ष्य युवाओं को कोई कार्य करने के लिए शारीरिक दृष्टि से तैयार करना है. अगला स्तर सामाजिक खोज का है, जिसमें ऐसी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है, जो भौतिक कष्ट कम करने वाली हों. अस्पतालों, अनाथालयों और वृद्धावस्था आश्रमों का संचालन इसी स्तर के अंतर्गत आता है. अगला उच्चतर स्तर बौद्धिक खोज का है. इसके अंतर्गत विद्यालय, महाविद्यालय संचालित करना और जागरूकता एवं सशक्तिकरण कार्यक्रमों का संचालन शामिल है. किसी व्यक्ति द्वारा अपना बौद्धिक स्तर उन्नत बनाना, ज्ञान प्राप्त करना और उसका समाज में प्रचार-प्रसार करना इस श्रेणी के अंतर्गत आता है. गहन चिंतन करने वालों के लिए वे सर्वोच्च स्तर की आध्यात्मिक सेवा का सुझाव देते थे, जिसमें ध्यान और साधना शामिल है. परंतु ये स्तर कोई जल विभाजक नहीं है, कोई व्यक्ति एक स्तर पर काम करते हुए अन्य स्तर पर भी काम कर सकता है, जो उसकी खोज, क्षमता और पहुंच पर निर्भर है. उनकी खोज में बदलाव होने पर वे अन्य स्तरों पर भी जा सकते हैं.

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My article on aspirations of the Indian youth was published in The Pioneer .  You can read a version of the article here                  ...